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Showing posts from May, 2020

आ अब लौट चलें

अपनी जड़ों की ओर लौटिए। अपने सनातन मूल की ओर लौटिए, व्रत, पर्व, त्यौहारों को मनाइए अपनी संस्कृति और सभ्यता को जीवंत कीजिये। आपस में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़, पद व पैसे के घमंड को थोड़ी देर छोड़कर इस पर भी विचार करें :- ० यदि मातृनवमी थी तो मदर्स डे क्यों लाया गया? ० यदि कौमुदी महोत्सव था तो वेलेंटाइन डे क्यों लाया गया? ० यदि गुरुपूर्णिमा थी तो टीचर्स डे क्यों लाया गया? ० यदि धन्वन्तरि जयन्ती थी तो डाक्टर्स डे क्यों लाया गया? ० यदि विश्वकर्मा जयंती थी तो प्रद्यौगिकी दिवस क्यों लाया? ० यदि सन्तान सप्तमी थी तो चिल्ड्रन्स डे क्यों लाया गया? ० यदि नवरात्रि और कंजिका भोज था तो डॉटर्स डे क्यों लाया? ० रक्षाबंधन है तो सिस्टर्स डे क्यों? ० भाईदूज है ब्रदर्स डे क्यों? ० आंवला नवमी, तुलसी विवाह मनाने वाले हिंदुओं को एनवायरमेंट डे की क्या आवश्यकता? ० केवल इतना ही नहीं ---- नारद जयन्ती ब्रह्माण्डीय पत्रकारिता दिवस है। ० पितृपक्ष 7 पीढ़ियों तक के पूर्वजों का पितृपर्व है। ० नवरात्रि को स्त्री के नवरूप दिवस के रूप में स्मरण कीजिये।      सनातन पर्वों को अवश्य मनाईये।      संस्कृति विस्मरण और रूपांतरण

मुठ्ठी भर ज़िंदगी

                 "मुट्ठी भर जिंदगी" आज बात करते हैं जी भर कर जी लेने की। कहां मिल पाता है हम औरतों को जी भर कर जीना ?लम्हा ,लम्हा चुराना पड़ता है ,जीना पड़ता है ,झेलना पड़ता है, सहना पड़ता है तब कहीं जाकर मिलती है खुशी, आत्मिक आनंद और उसमें भी एक डर है कि  कहीं हमें कोई अपनी उन्नति, अपने एहसास ,अपनी निजता अपनी मुट्ठी भर आजादी ,अपने अंदाज जीते हुए देख तो नहीं रहा ?कहीं इस पर भी  कोई विवाद ना हो जाए। इस पर भी कोई तल्ख़ टिप्पणी उभरकर सामने ना आ जाए, या फिर भविष्य के लिए यह सब सहेज कर ना रख लिया जाए कि सबके सामने हमारे इस ख़ास लम्हें को एक "व्यंग्य" ,"एक खास खबर" की तरह उजागर किया जा सके।  आज नारी दोहरी भूमिका  निभा रही है। वह सशक्त है ,सबल है, आश्वस्त भी है परंतु फिर भी यह सब करते हुए भी कहीं ना कहीं संम्बन्धो में अस्थिरता है। हमारा समाज बदल रहा है। परंतु उस हद तक बदलने में उसे शायद अभी सदियां ही लग जाए कि औरतें भी अगर  काम करके घर लौटती हैं तो उन्हें भी उसी सम्मान और इज्जत के साथ व्यवहार मिले जितना कि एक पुरुष को दिया जाता है। यहां नारी को यह बताना पड़ता है क