रक्षा सूत्र

त्रिपाठी ': तिवारी ब्राह्मणों का यज्ञोपवीत पर्व॥ 
   बहनें अपने भाइयों को बांधती हैं रक्षासूत्र ॥

सुप्रभात मित्रो ! आज  उत्तराखंड के तिवारी त्रिपाठी बंधुओं द्वारा यज्ञोपवीत धारण तथा रक्षासूत्र बंधन का पर्व ' मनाया जा रहा है। कुमाऊं में तिवारी, तिवाड़ी, तेवारी,तेवाड़ी, त्रिपाठी, त्रिवेदी आदि उपनामों से प्रचलित सामवेदी ब्राह्मण आज के दिन ‘हस्त’ नक्षत्र में ही ‘हरताली’ तीज पर जनेऊ धारण करते हैं। हरताली के दिन प्रातःकाल यज्ञोपवीत धारण किया जाता है और बहनें अपने भाइयों को रक्षासूत्र बांधती हैं तथा उनके सौभाग्यशाली जीवन एवं दीर्घायुष्य की कामना करती हैं। 

प्राचीन काल से ही परम्परा चली आ रही है कि  उत्तराखंड तथा पार्श्ववर्ती क्षेत्र   के तिवारी ब्राह्मण श्रावण पूर्णिमा के बदले आज भाद्रपद मास 'हस्त' नक्षत्र में यज्ञोपवीत धारण और रक्षाबंधन का पर्व मनाते आते आए हैं हालांकि इस संबंध में पहले मुझे भी यह विशेष जानकारी नहीं थी कि तिवारी समुदाय के लोग श्रावणी पूर्णिमा को छोड़कर हरतालिका तीज के अवसर पर जनेऊ संस्कार और रक्षाबंधन का त्योहार क्यों मनाते हैं ? बाद में मैंने इस जिज्ञासा को कुछ आगे बढाया और इस संबंध में जांच पड़ताल की तो पता चला कि वैदिक काल से चली आ रही परम्परा के अनुसार ऋग्वेदी एवं यजुर्वेदी ब्राह्मण श्रावणी पूर्णिमा को तथा सामवेदी ब्राह्मण भाद्रपद मास के ‘हस्त’ नक्षत्र में हरतालिका तीज के अवसर पर यज्ञोपवीत धारण का धार्मिक अनुष्ठान करते आए हैं जिसे धर्मशास्त्रीय शब्दावली में ‘उपाकर्म’ संस्कार के नाम से भी जाना जाता है।

उपाकर्म का अर्थ है प्रारंभ करना। उपाकरण का अर्थ है आरंभ करने के लिए निमंत्रण या निकट लाना। वैदिक काल में यह वेदों के अध्ययन के लिए विद्यार्थियों का गुरु के पास एकत्रित होने का काल था। इसके आयोजन काल के बारे में धर्मगंथों में लिखा गया है कि – जब वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं, श्रावण मास के श्रवण व चंद्र के मिलन (पूर्णिमा) या हस्त नक्षत्र में श्रावण पंचमी को उपाकर्म होता है। इस अध्ययन सत्र का समापन, उत्सर्जन या उत्सर्ग
 ‘सामगानामुपाकर्म’ (हरताली) पर देव तर्पण, ऋषि तर्पण व पितर तर्पण आदि होते हैं। अधिकमास केवल विवाह, ब्रतबंध और गृह प्रवेश के लिए  वर्जित है
कुछ क्षेत्रों में सामवेदी ब्राह्मण जन्माष्टमी को हरेला बोते हैं एवं हरताली  के दिन उसे काटते हैं। इसलिए भी 21 अगस्त की तिथि को ही हरताली मनाने का औचित्य सिद्ध किया  सामवेदी ब्राह्मणों का उपाकर्म  ऋषि तर्पण सामवेद मंत्रों के विधि के अनुसार भाद्रपद शुक्ल तृतीया हस्त नक्षत्र में होने का विधान है। इस दिन हस्त नक्षत्र होना आवश्यक है और मल मास आदि का कोई विचार नहीं किया जाता। इसलिए भाद्रपद शुक्ल तृतीया हस्त नक्षत्र से युक्त तिथि को ही ‘सामगानामुपाकर्म’ हरताली होना शास्त्र सम्मत माना गया। श्र

भारतीय परंपरा में प्रत्येक पर्व और त्यौहार अपने किसी न किसी महत्त्व के लिए प्रसिद्ध है।आज भले ही उनका सामाजिक औचित्य नहीं रहा हो मगर प्राचीन काल में उनकी बहुत उपादेयता रही थी। ब्राह्मण वर्ग के लिए तो श्रावणी महापर्व का सबसे अधिक महत्त्व है। रक्षाबंधन त्यौहार का पर्व भाई-बहन के पर्व के रूप में कई हजार सालों से प्रचलन में है परंतु वैदिक काल में इस पर्व का विशेष महत्त्व वेदाध्ययन की दृष्टि से रहा था। रक्षाबंधन जो श्रावणी पूर्णिमा के दिन आता है इसी दिन उपाकर्म का भी अनुष्ठान किया जाता है। 

प्राचीन काल में जब स्नातक अपनी शिक्षा पूरी करने के पश्चात गुरुकुल से विदा लेता था तो वह आचार्य का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उसे रक्षासूत्र बांधता था जबकि आचार्य अपने विद्यार्थी को इस कामना के साथ रक्षासूत्र बांधता था कि उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है वह उसका अपने भावी जीवन में समुचित रूप में प्रयोग करे ताकि वह अपने ज्ञान के साथ-साथ आचार्य की गरिमा की रक्षा करने में भी समर्थ हो सके। गुरु अपने शिष्य को तथा ब्राह्मण अपने यजमान को रक्षासूत्र बांधते हुए इस मंत्र का उच्चारण करते हुए कहता था -

“येन बद्धो बलि: राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥”.

अर्थात - जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानव नरेश राजा बलि को बांधा गया था, उसी रक्षाबन्धन से मैं तुम्हें बांधता हूं जो तुम्हारी रक्षा करेगा। 
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उल्लेखनीय है कि प्राचीन काल में ‘उपाकर्म’ संस्कार तीन चरणों में सम्पन्न होता था – प्रायश्चित संकल्प, यज्ञोपवीत धारण और स्वाध्याय। सर्वप्रथम ब्रह्मचारी शिष्य गुरु के सान्निध्य में गाय के दूध, दही, घी, गोबर, गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नान कर वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित करने का संकल्प लेता था। जिससे उसके जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता था। स्नान आदि करने के बाद दूसरे चरण में ऋषिपूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन तथा नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता था । यज्ञोपवीत या जनेऊ धारण आत्म संयम का संस्कार है। जिनका यज्ञोपवीत संस्कार हो चुका होता है,आज के दिन वे पुराना यज्ञोपवीत उतारकर नया धारण करते हैं और पुराने यज्ञोपवीत का पूजन भी करते हैं । इस संस्कार के द्वारा व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जो व्यक्ति आत्म संयमी है, वही यज्ञोपवीत संस्कार से दूसरे जन्म के कारण ‘द्विज’ कहलाता है-

"जन्मना जायते शूद्र: 
संस्कारात् द्विज उच्यते"

अर्थात जन्म से सभी शूद्र उत्पन्न होते हैं संस्कारों से ही मनुष्य 'द्विज' कहलाता है।

उपाकर्म का तीसरा चरण स्वाध्याय का है। इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घी की आहुति से होती है। जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेद के मंत्रों से आहुतियां दी जाती हैं। इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है। इस प्रकार वैदिक परंपरा में वैदिक शिक्षा साढ़े पांच या साढ़े छह मास तक चलती थी। वर्तमान में श्रावणी पूर्णिमा के दिन ही उपाकर्म और उत्सर्ग दोनों विधान कर दिए जाते हैं। भारतीय जीवन दर्शन की दृष्टि से यह उपाकर्म विधान हमें स्वाध्याय और सुसंस्कारों के विकास के लिए प्रेरित करता है। श्रावणी उपाकर्म करने के बाद जब ब्राह्मण घर लौटता था तब बहनें उसके हाथ में रक्षासूत्र बांधती थी।

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