संस्कृत के बारे में कुछ सत्य



संस्कृत के बारे में कुछ सत्य.....

कई वर्ष पहले संस्कृत को वैकल्पिक विषय के रूप में थोपे जाने के केस में सुप्रीम कोर्ट का एक निर्णय पढ़ रहा था। जो अरुणा राय बनाम भारत संघ नामक वाद में दिया गया था।
निर्णय अपनी जगह परंतु जो वाद दाखिल हुआ था , उसका वाद कारण बड़ा रोचक था !
याचिका कर्ता , अन्य कारण के अतिरिक्त माध्यमिक शिक्षा के केन्द्रीय बोर्ड में संस्कृत को वैकल्पिक विषय बनाया जाने से पीड़ित था ! याचिकाकर्ता का तर्क था कि संस्कृत थोपी जा रही हैं।
यद्यपि संस्कृत वैकल्पिक विषय के रुप में शामिल किया गया था। परंतु फिर याचिकाकर्ता इसे थोपना मानता था !
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता के तर्को को ठुकरा दिया था ! और माननीय न्यायाधीशों ने ध्यान दिलाया कि संस्कृत भी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल एक भाषा है ! प्राचीन भारतीय ज्ञान इसी भाषा में है।
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देश में एक ऐसा वर्ग बन गया है ..जो कि संस्कृत भाषा से तो शून्य हैं ,परंतु उनकी छद्म धारणा यह बन गयी है कि .. संस्कृत भाषा में  जो कुछ भी लिखा है वे सब पूजा पाठ के मंत्र ही होंगे ! वर्ना याचिका का वाद कारण ही क्यों उत्पन्न होता ?
अब क्यों हैं ऐसी छद्म धारणा ?
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चतुरस्रं मण्डलं चिकीर्षन्न् अक्षयार्धं मध्यात्प्राचीमभ्यापातयेत्।
यदतिशिष्यते तस्य सह तृतीयेन मण्डलं परिलिखेत्।

बौधायन ने उक्त श्लोक को लिखा है ! परंतु इसका क्या अर्थ है !?
यद्यपि उन्हें अर्थ नहीं मालूम तो भी  ये कोई पूजा पाठ का मंत्र होगा ।
चलिये इसका अर्थ समझें ----
यदि वर्ग की भुजा 2a हो तो वृत्त की त्रिज्या r = [a+1/3(√2a – a)] = [1+1/3(√2 – 1)] a
ये क्या है ?‌
अरे ये तो कोई गणित या विज्ञान का सूत्र लगता हैं ? भारतीय कहीं ऐसा कर सकते हैं ?
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शायद ईसा के जन्म से पूर्व पिंगल. के छंद शास्त्र में एक श्लोक प्रकट हुआ था ! हालायुध ने अपने ग्रंथ मृतसंजीवनी मे ,जो पिंगल के छन्द शास्त्र पर भाष्य है , इस श्लोक का उल्लेख किया है ..

परे पूर्णमिति। उपरिष्टादेकं चतुरस्रकोष्ठं लिखित्वा तस्याधस्तात् उभयतोर्धनिष्क्रान्तं कोष्ठद्वयं लिखेत्। तस्याप्यधस्तात् त्रयं तस्याप्यधस्तात् चतुष्टयं यावदभिमतं स्थानमिति मेरुप्रस्तारः। तस्य प्रथमे कोष्ठे एकसंख्यां व्यवस्थाप्य लक्षणमिदं प्रवर्तयेत्। तत्र परे कोष्ठे यत् वृत्तसंख्याजातं तत् पूर्वकोष्ठयोः पूर्णं निवेशयेत्।

शायद ही किसी आधुनिक शिक्षा में maths मे B. Sc. किया हुआ भारतीय छात्र इसका नाम भी सुना हो ?
ये मेरु प्रस्तार है ! 
परंतु जब ये पाश्चात्य जगत से पाश्कल त्रिभुज के नाम से भारत आया तो उन कथित सेकुलर भारतीय को शर्म इस बात पर आने लगी कि ..भारत में ऐसे सिद्धांत क्यों नहीं दिये जाते ?
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चतुराधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्राणाम्।
अयुतद्वयस्य विष्कम्भस्यासन्नो वृत्तपरिणाहः॥
ये भी कोई पूजा का मंत्र ही लगता हैं न ?
नहीं भाई ये किसी गोले के व्यास व परिध का अनुपात है !
जब पाश्चात्य जगत से ये आया तो ..संक्षिप्त रुप लेकर आया ऐसा π जिसे 22/7 के रुप में डिकोड किया जाता हैं।
हाँलाकि उक्त श्लोक को डिकोड करेंगे अंकों में तो ..कुछ यू होगा ..
(१०० + ४) * ८ + ६२०००/२०००० = ३.१४१६
ऋगवेद में π का मान ३२ अंक तक शुद्ध है
गोपीभाग्य मधुव्रातः श्रुंगशोदधि संधिगः |
खलजीवितखाताव गलहाला रसंधरः ||
इस श्लोक को डीकोड करने पर ३२ अंको तक π का मान
3.1415926535897932384626433832792… आता है।
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चक्रीय चतुर्भुज का क्षेत्रफल

ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त के गणिताध्याय के क्षेत्रव्यवहार के श्लोक १२.२१ में निम्नलिखित श्लोक वर्णित है-

स्थूल-फलम् त्रि-चतुर्-भुज-बाहु-प्रतिबाहु-योग-दल-घातस् ।
भुज-योग-अर्ध-चतुष्टय-भुज-ऊन-घातात् पदम् सूक्ष्मम् ॥
(त्रिभुज और चतुर्भुज का स्थूल (लगभग) क्षेत्रफल उसकी आमने-सामने की भुजाओं के योग के आधे के गुणनफल के बराबर होता है। तथा सूक्ष्म (exact) क्षेत्रफल भुजाओं के योग के आधे में से भुजाओं की लम्बाई क्रमशः घटाकर और उनका गुणा करके वर्गमूल लेने से प्राप्त होता है। )
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ब्रह्मगुप्त प्रमेय

चक्रीय चतुर्भुज के विकर्ण यदि लम्बवत हों तो उनके कटान बिन्दु से किसी भुजा पर डाला गया लम्ब सामने की भुजा को समद्विभाजित करता है।

ब्रह्मगुप्त ने श्लोक में कुछ इस प्रकार अभिव्यक्त किया है-

त्रि-भ्जे भुजौ तु भूमिस् तद्-लम्बस् लम्बक-अधरम् खण्डम् ।
ऊर्ध्वम् अवलम्ब-खण्डम् लम्बक-योग-अर्धम् अधर-ऊनम् ॥ -- (ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त, गणिताध्याय, क्षेत्रव्यवहार १२.३१)

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वर्ग-समीकरण का व्यापक सूत्र

ब्रह्मगुप्त का सूत्र इस प्रकार है —

वर्गचतुर्गुणितानां रुपाणां मध्यवर्गसहितानाम् ।
मूलं मध्येनोनं वर्गद्विगुणोद्धृतं मध्यः ॥ -- ब्राह्मस्फुट-सिद्धांत - 18.44
अर्थात :-

व्यक्त रुप (c) के साथ अव्यक्त वर्ग के चतुर्गुणित गुणांक (4ac) को अव्यक्त मध्य के गुणांक के वर्ग (b²) से सहित करें या जोड़ें। इसका वर्गमूल प्राप्त करें तथा इसमें से मध्य अर्थात b को घटावें। पुनः इस संख्या को अज्ञात ञ वर्ग के गुणांक (a) के द्विगुणित संख्या से भाग देवें। प्राप्त संख्या ही अज्ञात ञ राशि का मान है।
श्रीधराचार्य ने इस बहुमूल्य सूत्र को भास्कराचार्य का नाम लेकर अविकल रुप से उद्धृत किया —

चतुराहतवर्गसमैः रुपैः पक्षद्वयं गुणयेत् ।
अव्यक्तवर्गरूपैर्युक्तौ पक्षौ ततो मूलम् ॥ -- भास्करीय बीजगणित, अव्यक्त-वर्गादि-समीकरण, पृ. - 221
अर्थात :-

प्रथम अव्यक्त वर्ग के चतुर्गुणित रूप या गुणांक (4a) से दोनों पक्षों के गुणांको को गुणित करके द्वितीय अव्यक्त गुणांक (b) के वर्गतुल्य रूप दोनों पक्षों में जोड़ें। पुनः द्वितीय पक्ष का वर्गमूल प्राप्त करें।

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आर्यभट की ज्या (Sine) सारणी

आर्यभटीय का निम्नांकित श्लोक ही आर्यभट की ज्या-सारणी को निरूपित करता है:

मखि भखि फखि धखि णखि ञखि ङखि हस्झ स्ककि किष्ग श्घकि किघ्व ।
घ्लकि किग्र हक्य धकि किच स्ग झश ङ्व क्ल प्त फ छ कला-अर्ध-ज्यास् ॥

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माधव की ज्या सारणी

निम्नांकित श्लोक में माधव की ज्या सारणी दिखायी गयी है। जो चन्द्रकान्त राजू द्वारा लिखित 'कल्चरल फाउण्डेशन्स आफ मैथमेटिक्स' नामक पुस्तक से लिया गया है।

श्रेष्ठं नाम वरिष्ठानां हिमाद्रिर्वेदभावनः।
तपनो भानुसूक्तज्ञो मध्यमं विद्धि दोहनं।।
धिगाज्यो नाशनं कष्टं छत्रभोगाशयाम्बिका।
म्रिगाहारो नरेशोऽयं वीरोरनजयोत्सुकः।।
मूलं विशुद्धं नालस्य गानेषु विरला नराः।
अशुद्धिगुप्ताचोरश्रीः शंकुकर्णो नगेश्वरः।।
तनुजो गर्भजो मित्रं श्रीमानत्र सुखी सखे!।
शशी रात्रौ हिमाहारो वेगल्पः पथि सिन्धुरः।।
छायालयो गजो नीलो निर्मलो नास्ति सत्कुले।
रात्रौ दर्पणमभ्राङ्गं नागस्तुङ्गनखो बली।।
धीरो युवा कथालोलः पूज्यो नारीजरैर्भगः।
कन्यागारे नागवल्ली देवो विश्वस्थली भृगुः।।
तत्परादिकलान्तास्तु महाज्या माधवोदिताः।
स्वस्वपूर्वविशुद्धे तु शिष्टास्तत्खण्डमौर्विकाः।। २.९.५
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ग्रहों की स्थिति, काल एवं गति संपादित करें

महर्षि लगध ने ऋग्वेद एवं यजुर्वेद की ऋचाओं से वेदांग ज्योतिष संग्रहीत किया। वेदांग ज्योतिष में ग्रहों की स्थिति, काल एवं गति की गणना के सूत्र दिए गए हैं।

तिथि मे का दशाम्य स्ताम् पर्वमांश समन्विताम्।
विभज्य भज समुहेन तिथि नक्षत्रमादिशेत॥
अर्थात् तिथि को 11 से गुणा कर उसमें पर्व के अंश जोड़ें और फिर नक्षत्र संख्या से भाग दें। इस प्रकार तिथि के नक्षत्र बतावें।नेपाल में इसी ग्रन्थ के आधार मे विगत ६ साल से "वैदिक तिथिपत्रम्" व्यवहार मे लाया गया है।
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पृथ्वी का गोल आकार

निम्नलिखित में पृथ्वी को 'कपित्थ फल की तरह' (गोल) बताया गया है और इसे 'पंचभूतात्मक' कहा गया है-

मृदम्ब्वग्न्यनिलाकाशपिण्डोऽयं पाञ्चभौतिकः।
कपित्थफलवद्वृत्तः सर्वकेन्द्रेखिलाश्रयः ॥
स्थिरः परेशशक्त्येव सर्वगोऴादधः स्थितः ।
मध्ये समान्तादण्डस्य भूगोलो व्योम्नि तिष्ठति ॥

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प्रकाश का वेग

सायणाचार्यः ने प्रकाश का वेग निम्नलिखित श्लोक में प्रतिपादित किया है-

योजनानं सहस्रे द्वे द्वे शते द्वे च योजने ।
एकेन निमिषार्धेन क्रममाण नमोऽस्तुते ॥
इसकी व्याख्या करने पर प्रकाश का वेग ६४००० कोस १८५०० मील) इति उक्तम् अस्ति । प्रकाश के वेग का आधुनिक मान १८६२०२.३९६० मील/सेकेण्ड है।

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संख्या रेखा की परिकल्पना (कॉन्सेप्ट्)

In Brhadaranyaka Aankarabhasya (4.4.25) Srisankara has developed the concept of number line. In his own words

एकप्रभृत्यापरार्धसंख्यास्वरूपपरिज्ञानाय रेखाध्यारोपणं कृत्वा एकेयं रेखा दशेयं, शतेयं, सहस्रेयं इति ग्राहयति, अवगमयति, संख्यास्वरूम, केवलं, न तु संख्याया: रेखातत्त्वमेव
जिसका अर्थ यह है-

1 unit, 10 units, 100 units, 1000 units etc. up to parardha can be located in a number line. Now by using the number line one can do operations like addition, subtraction and so on.

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ये तो कुछ नमूना हैं -- जो ये दर्शाने के लिये दिया गया है‌ कि संस्कृत ग्रंथो में केवल पूजा पाठ या आरती के मंत्र नहीं है .. श्लोक लौकिक सिद्धांतों के भी हैं ..और वो भी एक पूर्ण वैज्ञानिक भाषा व लिपि में जिसे एक बार मानव सीख गया तो बार बार वर्तनी याद करने या रटने के झंझट से मुक्त हो जाता हैं !

दुर्भाग्य से १००० साल की ग़ुलामी में संस्कृत का ह्रास होने के कारण हमारे पूर्वजों के ज्ञान का भावी पीढ़ी द्वारा विस्तार नहीं हो पाया और बहुत से ग्रंथ आक्रांताओं द्वारा  नष्ट भ्रष्ट कर दिए गए।और स्वतंत्रता के बाद हमारी सरकारों ने तो ऐसे वातावरण बना दिए कि संस्कृत का कोई श्लोक पूजा का मंत्र ही लगता हैं ।



संकलन कर्ता
डॉ विदुषी शर्मा

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