रामचरितमानस में चित्रित भारतीय संस्कृति।

श्रीरामचरितमानस में चित्रित भारतीय संकृति।

श्लोक

वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥1॥
भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्॥

परिचय--

श्रीरामचरितमानस अवधी भाषा में तुलसीदास जी के द्वारा 16 वीं शताब्दी में रचित एक महाकाव्य है।श्रीरामचरितमानस भारतीय संस्कृति में एक विशेष  व अनूठा स्थान रखता है। यह सत्य सनातन धर्म का द्योतक भी कहा जा सकता है ।सनातन धर्मी किसी भी भारतीय के घर में श्रीरामचरितमानस उपलब्ध ना हो ऐसा हो ही नहीं सकता ।रामचरितमानस ऐसा महाकाव्य है जो जीवन और संघर्ष का परिचायक है ।इसलिए जीवन में 'जीवन्तता' बनाए रखते हुए संघर्ष की प्रेरणा देने हेतु श्रीरामचरितमानस जनमानस का मुक्ति मार्ग प्रशस्त करता है ।

प्रामाणिक रचनाकाल---

तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के बालकांड में स्वयं लिखा है कि उन्होंने रामचरितमानस की रचना  अयोध्या में रामनवमी के दिन मंगलवार को आरंभ की थी। गीता प्रेस गोरखपुर हनुमान प्रसाद पोद्दार के अनुसार
"रामचरितमानस लिखने में गोस्वामी तुलसीदास जी को 2 वर्ष 7 माह और 26 दिन का समय लगा था ,और उन्होंने इसे मार्गशीष शुक्ल पक्ष में श्री राम विवाह के दिन पूर्ण किया था।"

श्रीरामचरितमानस में चित्रित भारतीय संस्कृति

श्रीरामचरितमानस के परिचय के पश्चात अब बात करते हैं इसमें चित्रित भारतीय संस्कृति की।  भारतीय संस्कृति का चित्रण जितना मानस में किया गया है शायद ही किसी और ग्रंथ में हो, क्योंकि इसमें श्रीराम जी  के माध्यम से ,लक्ष्मण जी के माध्यम से और अन्य चरित्रों के माध्यम से  हर चीज की चरम सीमा बताई गई है ।जैसे मर्यादा की चरम सीमा, भ्रातृ प्रेम की चरम सीमा, भक्ति की चरम सीमा इत्यादि। अब हम इसके बारे में विस्तार से बात करते हैं ।

1 माता पिता की आज्ञा का पालन एवं उनको सर्वोच्च स्थान--

हमारे हिंदू धर्म में माता को देवताओं से भी सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है। माता और पिता पृथ्वी और आकाश के समतुल्य माने जाते हैं ,और  मानस में श्रीराम के माध्यम से माता और पिता की आज्ञा को सर्वोपरि स्थान दिया गया है। उन्होंने वनगमन को जिस प्रकार शिरोधार्य किया, वह उस युग में भी आदरणीय था और आज के युग में भी आदरणीय है, और आगे भी   आदरणीय और अनुकरणीय भी रहेगा । कितने भी दुख, कितनी तकलीफ ही क्यों न हो माता - पिता की आज्ञा हमेशा नतमस्तक होकर माननी चाहिए। माता- पिता की आज्ञा का इस तरह  पालन करने वाले श्री राम की तरह शायद ही कोई और चरित्र हमें देखने को मिलता है। इसके साथ-साथ मानस में लगभग सभी पात्र अपने माता-पिता एवं गुरुजनों का एवम  अपने अग्रजों का कहना बहुत ही शालीनता के साथ मानते हैं। यही हिंदू धर्म की संस्कृति है। यही हमारी पहचान है जिसका निर्वाह श्रीरामचरितमानस में बखूबी किया गया है

2 गुरुजनो की आज्ञा शिरोधार्य--

जिस प्रकार श्री राम जी और अन्य पात्रों ने भी   माता- पिता की आज्ञा को अपना धर्म समझा। इसी प्रकार उन्होंने गुरु वशिष्ठ की आज्ञा को भी उतना ही सम्मान प्रदान किया। फिर चाहे वह राक्षसों का वध हो, शिव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने का कार्य हो या फिर कोई और।  उन्होंने हमेशा सिर झुका कर अपने गुरुजनों की आज्ञा का पालन किया। इसी प्रकार उनकी आज्ञा का पालन  श्री राम जी के अन्य भाइयों ने भी किया है ।

3 भ्रातृ प्रेम--

लक्ष्मण जी ने  भ्रातृ प्रेम की चरम सीमा को छुआ है। उन्होंने अपना जीवन ,यहां तक कि प्राकृतिक क्रिया जैसे निद्रा का भी त्याग कर दिया था (वनवास के दौरान) ।यह सर्वविदित है कि लक्ष्मण जी वनवास की अवधि पूरे 14 वर्ष तक नहीं सोए थे। इसलिए उन्होंने अपनी शारीरिक क्रियाओं को , प्राकृतिक क्रियाओं को भी अपने भाई के लिए त्याग दिया। अपने गृहस्थ  जीवन को,अपना सर्वस्व  अपने भाई पर निछावर कर दिया। भ्रातृ प्रेम का इससे अधिक अच्छा उदाहरण देखने को मिल ही नहीं सकता। लक्ष्मण जी के त्याग को और भ्रातृ प्रेम को तो हर कोई जानता है परंतु भ्रातृ प्रेम की पराकाष्ठा तो देखने को मिलती है कुंभकरण में। जिन्होंने सब कुछ सामने देखते हुए भी अपने भाई का हाथ, अपने भाई का साथ नहीं छोड़ा, एवं मृत्यु को गले लगाया। जिसमें उनका कोई भी स्वार्थ नहीं था। उन्होंने केवल अपने भाई के लिए अपने जीवन को त्याग दिया ।यहां पर कुंभकरण का त्याग आदरणीय है।  श्री राम जी के अन्य भाइयों में भी इसी प्रकार का त्याग  देखने को मिलता है ।चाहे वह भरत के द्वारा श्री राम जी की चरण पादुका को राज सिंहासन पर विराजित करके उन्हीं का आज्ञा का पालन करनाआदि। भरत और शत्रुघ्न ने  तथा लव कुश ने भी  भ्रातृ प्रेम बहुत ही सुंदर तरीके से निभाया है।

राजा : प्रजा का सेवक--

जैसा की हमने पूर्व में भी कहा है रामचरितमानस में हर प्रकार की भारतीय संस्कृति की चरम सीमा का उल्लेख मिलता है। राजा का कर्तव्य है प्रजा पालन या जनता की  सेवा।  रामायण में राजा का कर्तव्य जनता की सेवा करना है और यह कार्य सभी राजा लोग भली भांति निभाते हैं। चाहे वह राजा दशरथ हो, राजा जनक हों, बाली और सुग्रीव हो, या लंका के राजा रावण हों। उनकी प्रजा सुखी एवम संपन्न है। और अपने राजा से बहुत अधिक प्यार करती है, उनका सम्मान करती है। राजा भी अपनी प्रजा का अपने पुत्रों की भांति ही ध्यान रखते हैं। रामायण में एक जगह प्रसंग है जहां रावण अपनी प्रजा की मुक्ति के लिए (क्योंकि उनकी प्रजा राक्षस जाति की थी) भगवान से प्रार्थना करते हैं
श्री रामचरित मानस में शिव भक्त  श्री रावण  के मन की बात जो उन्होंने न केवल स्वयं के मोक्ष के लिए सोची अपितु सारी राक्षस जाति के शुभ कल्याण के लिए भी इस पर विचार किया ।
यथा .........

"सुर रंजन भंजन महि भारा। जौं भगवंत लीन्ह अवतारा॥
तौ मैं जाइ बैरु हठि करऊँ। प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ॥

*भावार्थ:-रावण ने विचार किया कि देवताओं को आनंद देने वाले और पृथ्वी का भार हरण करने वाले भगवान ने ही यदि अवतार लिया है, तो मैं जाकर उनसे हठपूर्वक वैर करूँगा और प्रभु के बाण (के आघात) से प्राण छोड़कर भवसागर से तर जाऊंगा।
  (इस प्रकार मैं तथा मेरी पूरी प्रजा ही   श्री राम जी के हाथों मृत्यु को प्राप्त करके मोक्ष को प्राप्त कर लेगी।)

मर्यादा का चरम: 'अति सर्वत्र वर्जयेत' --

यहां श्री राम जी ने मर्यादा के चरम को छू लिया है  ।  माना कि राजा का धर्म है अपनी प्रजा की देखभाल करना, उनके सुख - दुख का ख्याल रखना ।लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रजा के कुछ भी कहने पर  अपने और अपने परिवार का ध्यान ना रखा जाए।  श्री राम जी ने एक धोबी के कहने पर अपनी गर्भवती पत्नी सीता का त्याग कर दिया जो मर्यादा का चरम है। इसके बाद जो कुछ भी हुआ वह हम सभी जानते हैं । सीता जी ने किस प्रकार अपने आप की रक्षा की, लव कुश को जन्म दिया एवं जंगलों में रहकर ही उनकी परवरिश की ।क्या राजा का कर्तव्य यह नहीं है कि वह अपने प्रजा में ही रहने वाली, उसके अंतर्गत आने वाली एक गर्भवती स्त्री की रक्षा करे? क्या राजा पुरुष नहीं है? क्या वह विवाहित नहीं है? अगर विवाहित है तो जितना दायित्व उसका अपनी प्रजा के सुख- दुख के लिए है ,उतना ही उसका  दायित्व अपने परिवार के प्रति भी है।अपने परिवार के सदस्यों की  सुरक्षा करना, अपने परिवार का भरण पोषण करना यह एक परिवार के मुखिया का, एक पुरुष का प्रथम कर्तव्य है। श्री राम जी इस से विमुख पाए जाते हैं ।  इसीलिए अति हर चीज की बुरी है हमें इस से बचना चाहिए। परोक्ष रूप से यहां पुरुष जाति को अपने परिवार एवं उसके सदस्यों की सुरक्षा, संगठन ,अनुशासन की शिक्षा दी गई है।

गृहस्थ आश्रम में संतुलन अत्यावश्यक--

मानस में तुलसी जी ने परोक्ष रूप से यह शिक्षा देने का प्रयत्न किया है कि चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम सबसे अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें सभी रिश्तो को, सभी भावनाओं को, सभी मर्यादाओं को, स्वयं को संतुलित  करके चलना पड़ता है ,और यह संतुलन बहुत अधिक कठिन है ।यही सब कुछ करते हुए ही हमें अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करना है ,और निरंतर कर्मशील रहते हुए भक्ति मार्ग के द्वारा ईश्वरत्व को भी प्राप्त करना है। उन्होंने गृहस्थाश्रम को अनिवार्य बताया है और इसी में ही रहते हुए अपने सभी कर्मों को करने की प्रेरणा दी है। विभिन्न  चरित्रों के माध्यम से उन्होंने अपनी बात स्पष्ट रूप से कहने का प्रयत्न किया है।
श्री राम के चरित्र को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है ।
  यहां हम यह कह सकते हैं कि पति की मर्यादा और पिता की मर्यादा का उन्होंने सही से पालन नहीं किया क्योंकि दूसरों के कहने पर अपनी पत्नी सीता का त्याग कर दिया और अपने पारिवारिक जीवन को ताक पर रख दिया जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए ।इतना भी अधिक आदर्शवादी देना चाहिए।हम  सभी को सभी रिश्तो को, सभी की भावनाओं को संतुलित लेकर चलना चाहिए। उन्होंने एक धोबी के कहने पर अपनी गर्भवती पत्नी का त्याग कर दिया। जबकि अपनी पत्नी की सुरक्षा उनका प्रथम कर्तव्य था। इसलिए यहां इस प्रकार की मर्यादा की अतिश्योक्ति की गई है। जबकि यह सब कुछ लीला ही थी परंतु फिर भी यहां पर अतिशयोक्ति है। हमें रिश्तो में रहते हुए इस प्रकार की अतिश्योक्ति से बचना चाहिए एवं सभी रिश्तो को बराबर मान - सम्मान देना चाहिए ।क्योंकि यदि परिवार सही है तो, समाज सही है, समाज सही है तो, राज्य सही है, और राज्य ठीक है तो, देश ठीक है और देश ठीक रहेगा, तो विश्व ठीक रहेगा ।इसलिए विश्व को ठीक करने की प्रथम इकाई मानव है, परिवार है। हमें वहीं से शुरुआत करनी है। शांति की, प्रेम की, भाईचारे की, सम्मान की ताकि प्रथम इकाई ही ठीक रहेगी तो समग्र अपने आप ठीक हो जाएगा।

मानवीय गुणों का संगम भारतीय संस्कृति --

हमारी भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में मानवीय गुणों के अंतर्गत प्रेम, त्याग, करुणा, समर्पण इत्यादि इन गुणों का बहुत अधिक महत्व है ।चाहे वह परिवार हो, समाज हो, देश हो या   सम्पूर्ण विश्व ।इन  सब भावनाओं  के साथ सभी रिश्तो का निर्वाह किया जाता है, एवं त्याग के साथ सभी वस्तुओं का  भोग करने के लिए कहा जाता है ताकि  विषयों में आसक्ति कम से कम बनी रहे।   मानस के माध्यम से इन सभी गुणों को बहुत ही सुंदर तरीके से प्रदर्शित  किया गया है।  एकता, संगठन, शांति, त्याग आदि का महत्व बताया गया है।

"शांति" सैदेव  निर्माण करती है  और "युद्ध" सदा विध्वंस।

इस संदेश को आम जनता को समझाने का प्रयास किया गया है। शांति का कोई विकल्प नहीं है। इस बात को समझाने का प्रयत्न किया गया है। यदि हम मानस  में निर्दिष्ट केवल मानवीय गुणों को ही आत्मसात कर ले, अपने जीवन में अपना ले  तो हमारा जीवन बहुत सुंदर और बहुत ही शांतिमय बन सकता है।  अभी मानस के भक्ति, विरक्ति,  प्रेम, श्रद्धा,त्याग, विश्वास आदि गुणों को तो छोड़ दिया जाए।

एकता, अखण्डता ,शांति और वैश्विक भाईचारे का संदेश --

हमारी भारतीय  संस्कृति   में सर्वत्र  'सर्वे भवंतु सुखिन:' 
यानी  इस पृथ्वी पर सभी लोग सुखी हो,  की कामना की जाती है ।  

यह हमारी संस्कृति की पहचान है जिसमें कहीं भी जाति पाति का भेदभाव, किसी अमीर गरीब का भेदभाव, लिंग का भेदभाव नहीं जाना जाता। अपितु हमारे यहां तो न केवल सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव की रक्षा की बात की गई है, अपितु वनस्पति की, अंतरिक्ष आदि की शांति की भी बात की गई है जिसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है हमारा शांति पाठ----

"ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,
पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।
वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,
सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:"॥

  यह  प्रार्थना  पूरी पृथ्वी के लिए है, पूरे अंतरिक्ष के लिए पूरी मानव जाति के लिए, इस पृथ्वी पर जितने भी जीव है ।
मानस में भी  यही कामना की गई है  की एकता और अखंडता के साथ यदि हम इकट्ठे रहेंगे तो तरक्की करेंगे। यदि हम एक दूसरे का कहा नहीं मानेंगे , विलग होकर रहेंगे  तो हमारे ऊपर अनेक प्रकार की विपत्तियां आ जाएंगी।यथा  --

"जहाँ  सुमति  तहाँ सम्पति नाना;
जहाँ कुमति तहाँ बिपति निदाना।"

जिस  घर  में  आपसी  प्रेम  और  सद्भाव  होता  है  वहां सारे सुख और संपत्ति होती है। और  जहाँ  आपस  में  द्वेष  और  वैमनष्य  होता  है  ,उस घर  के वासी दुखी व विपन्न हो जाते हैं।

मानस में भी  इसी प्रकार की  भारतीय संस्कृति देखने को मिलती है । 'अतिथि देवो भव' का भाव मिलता  है।

पर्यावरण सुरक्षा एवं प्रकृति प्रेम--

हमारी भारतीय संस्कृति  सर्वत्र  प्रकृति प्रेम,  जीव प्रेम  यानी सभी प्रकार के जीवो को समान   मान्यता दी जाती है ।
रामचरितमानस में प्रकृति के साथ, प्रकृति की रक्षा की बात की गई है ।पंचवटी, अशोक वाटिका इत्यादि का सौंदर्य वर्णन देखते ही बनता है। यहां पर प्रकृति संरक्षण एवं पशु, पक्षी प्रेम भी दर्शनीय है। जटायु, संपाती, बाली, सुग्रीव, जामवंत, हनुमान जी यह सब पशु जाति के होते हुए भी श्रीराम को बहुत अधिक प्रिय है एवम सभी का अपना महत्व है।

अडिगता ,वचन की कीमत--

"रघुकुल रीत सदा चली आई
प्राण जाए पर वचन ना जाइ।"

  यह उक्ति आज भी उतनी ही प्रसिद्ध है जितनी उस युग में हुआ करती थी ।यानि अपने वचन को अपने प्राणों से भी अधिक महत्व देने की रीति।  मानस में सबने अपने वचन का पालन अपनी  जी  जान  से किया। चाहे वह राजा दशरथ  हो या श्री राम ।वचन का पालन तन ,मन, धन से सभी ने किया है।  वचन पालन में तो राजा दशरथ अपने प्राणों से ही हाथ धो बैठे, परंतु फिर भी अपने वचन का पालन किया। इस प्रकार श्रीराम ने भी अपने वचन का पालन प्रसन्नता के  किया और 14 वर्ष तक वनवास में रहे। इस प्रकार मानस के माध्यम से अपने वचन पर अडिग  होने का संदेश दिया जाता है जो भारतीय संस्कृति की पहचान है।

आस्था विश्वास की पराकाष्ठा---

रामायण में आस्था और विश्वास की पराकाष्ठा है जिसमें पत्थर भी पानी में तैर जाते हैं ।रामसेतु इसका प्रमाण है जो आज भी देखा जा सकता है।पत्थर का पानी में तैर जाना आस्था की पराकाष्ठा है।

षड्यंत्र ,कान भरने की संस्कृति---

हिंदू धर्म में जल्दी किसी की बातों में आने की संस्कृति बहुत अधिक है। अपने परिवार को छोड़ कर दूसरों के साथ निभाने की बात भी देखी जा सकती है। मंथरा के द्वारा अपनी बातों से  किस प्रकार  कैकई की मति भ्रष्ट की जाती है, और सारा खेल ही पलट जाता है। कहां राज्याभिषेक ,और कहां वनवास।दूसरी ओर किस प्रकार विभीषण के द्वारा अपने भाई को छोड़कर श्री राम के पास आया जाता है। यह बात देखते ही बनती है ।हम सब जानते हैं कि श्री राम स्वयं भगवान थे, विष्णु के अवतार थे, सच्चाई के पथ पर थे ।परंतु फिर भी भाई तो भाई ही है। जहां कुंभकर्ण ने अपने भाई का साथ नहीं छोड़ा, चाहे उसे सामने मृत्यु दिखाई दे रही थी। फिर भी उन्होंने  सही शिक्षा देकर रावण को समझाने का प्रयत्न किया, कि आप सीता जी को लौटा दीजिए। परंतु जब  वो नहीं माने तो उन्होंने युद्ध के लिए हां कर दी। सब कुछ होते हुए भी उन्होंने अपने भाई का साथ नहीं छोड़ा और दूसरी तरफ विभीषण अपने भाई को छोड़कर श्रीराम की तरफ चले गए। तभी से यह उक्ति प्रचलित है  

"घर का भेदी लंका ढाए"।

कुल मिलाकर रामायण पूर्ण रूप से भारतीय संस्कृति पर आधारित ग्रंथ है ।इसमें सभी पात्र चाहे कुछ भी हो जाए अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते हैं। चाहे वह महापंडित रावण ही क्यों ना हो, और श्री राम को मर्यादा पुरुषोत्तम है ही। यहां  हम त्याग, मर्यादा में लक्ष्मण और उर्मिला के नाम भी लेना चाहेंगे। क्योंकि सीता जी तो श्री राम के साथ वनों में गई थी ।उन्होंने राज महल के सुखों का त्याग किया था।  उनके पति सीता जी के साथ थे, और जहां पति परमेश्वर साथ होता है वहां जंगल में भी मंगल होता है।
परंतु जहां पति का वियोग है, वहां राजसी  ठाट-बाट, महल के सुख- सुविधाएं निरर्थक सिद्ध हो जाते हैं ,क्योंकि पति के साथ के बिना एक स्त्री का किसी भी चीज में मन नहीं लगता। ना हार श्रृंगार में ,ना खान- पकवान में,और न जी किसी अन्य में।

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने "मुझे फूल मत मारो" में उर्मिला के चरित्र पर प्रकाश डाला है ।उर्मिला के चरित्र शुद्ध भारतीय नारी का प्रतीक है ।भारतीय संस्कृति का प्रतीक है जो मन, वचन, कर्म से केवल अपने पति के बारे में ही सोचती है, एवं कितनी भी मुसीबत क्यों ना आ जाए, अपने पति का साथ नहीं छोड़ती है ।

'डोली में आती है और अर्थी में  ही जाती है'।

तुलसीदास जी ने भी कहा है- 

"धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी 
आपत काल परखिए चारी "।

उर्मिला जी त्याग उच्च कोटि का है।  एक  प्रसंग में जब कामदेव के द्वारा उर्मिला जी को सताया जाता है तो उनके लिए कथन अति सुंदर है।

  "मुझे फूल मत मारो

    
मैं अबला बाला वियोगिनी, कुछ तो दया विचारो।
होकर मधु के मीत मदन, पटु, तुम कटु गरल न गारो,

मुझे विकलता, तुम्हें विफलता, ठहरो, श्रम परिहारो।
नहीं भोगनी यह मैं कोई, जो तुम जाल पसारो,
बल हो तो सिन्दूर-बिन्दु यह--यह हरनेत्र निहारो!
रूप-दर्प कंदर्प, तुम्हें तो मेरे पति पर वारो,
लो, यह मेरी चरण-धूलि उस रति के सिर पर धारो!"

यहां उच्चकोटि का पतिव्रत धर्म है जो हमारी भारतीयता की पहचान है ।हमारे भारतवर्ष में सावित्री, सती अनुसुइया आदि पतिव्रता स्त्रियों का नाम सदैव आदर से लिया जाता रहेगा।
 

मानस की उक्तियों में भारतीय संस्कृति दर्शन---

रामायण एकमात्र ऐसा हिंदू ग्रंथ है जो सबसे अधिक घरो में पढ़ा जाता है, पाया जाता है। जिसका पठन - पाठन सबसे अधिक होता है।  इसके गुण सर्वकालिक (Timeless ) हैं।तभी तो  उक्तियां उस युग में जितनी लाभदायक थी, सार्थक  थी ,आज भी उतनी ही लाभदायक और सार्थक है । जैसे

"जैसे घर का भेदी लंका ढाए "।

"जहां सुमति तहां संपति नाना"।
" ढोल गंवार शूद्र पशु नारी ,सकल ताड़ना के अधिकारी"।
"देव देव आलसी पुकारा"
"भय बिन होय न प्रीत"  आदि ।

कुल मिलाकर रामायण भारतीय संस्कृति की पहचान है, उसकी धरोहर है, राष्ट्रीयता से ओतप्रोत एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें  सबकुछ उच्च कोटि का है ।चाहे वह  मातृभूमि के प्रति प्रेम  हो, आस्था हो, विश्वास हो या अन्य कोई भाव । उच्च कोटि के रचयिता तुलसीदास जी ने अतुलनीय  भक्ति भाव से ही इस सर्वकालिक ग्रंथ की रचना की है ।केवल "राममय"  होकर मानस को  लिखा है और जो केवल

" स्वांत सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा"।
यानि स्वयं के सुख से बढ़कर कुछ नहीं है।

  यह है राम कथा राम कथा

इसे पढ़ कर मिट जाती है,
जीवन की हर व्यथा
यह राम कथा, यह राम कथा ।

श्री रामचरितमानस और नीति शिक्षा--

तुलसीदासजी द्वारा रचित रामचरित मानस नीति-शिक्षा का एक महत्मपूर्ण ग्रंथ है। इसमें बताई गई कई बातें और नीतियां मनुष्य के लिए बहुत उपयोगी मानी जाती हैं, जिनका पालन करके मनुष्य कई दु:खों और परेशानियों से बच सकता है।

रामचरित मानस में चार ऐसी महिलाओं के बारे में बताया गया है, जिनका सम्मान हर हाल में करना ही चाहिए। इन चार का अपमान करने वाले या इन पर बुरी नजर डालने वाले मनुष्य महापापी होते हैं। ऐसे मनुष्य की जीवनभर किसी न किसी तरह से दुख भोगने पड़ते ही है।

"अनुज बधू भगिनी सुत नारी, सुनु सठ कन्या सम ए चारी,
इन्हिह कुदृष्टि बिलोकइ जोई, ताहि बधें कछु पाप न होई"।।

अर्थात- छोटे भाई की पत्नी, बहन, पुत्र की पत्नी और अपनी पुत्री- ये चारों एक समान होती हैं। इन पर बुरी नजह डालने वाले या इनका सम्मान न करने वाले को मारने से कोई पाप नहीं लगता।

वास्तव में रामचरितमानस में कोई भी उक्ति ऐसी नहीं है, कोई भी चौपाई ऐसी नहीं है जिसमें कोई शिक्षा ना हो। केवल आवश्यकता है तो हमें इनका अनुकरण करने की।

"हमें निज धर्म पर चलना सिखाती रोज रामायण,
सदा शुभ आचरण करना सिखाती रोज रामायण ।

जिन्हें संसार सागर से उतरकर पार जाना है, उन्हें सुख से किनारे पर लगाती रोज रामायण।

कहीं छवि विष्णु की बाकी, कही शंकर की है झांकी,
हृदयानंद झूले पर झूलाती रोज रामायण ।

सरल कविता की कुंजों में बना मंदिर है हिंदी का,
जहां प्रभु प्रेम का दर्शन कराती रोज रामायण।

कभी वेदों के सागर में, कभी गीता की गंगा में, सभी रस बिंदुओं को मन में मिलाती रोज रामायण।

कही त्याग, कही प्रेम ,कहीं समर्पण का भाव है,
भक्ति, प्रेम का संदेश जन - जन को पहुंचाती रोज रामायण।

सत्य, निष्ठा ,मर्यादा का अनुपम संदेश है ये,
भारत की गरिमा में चार चांद लगाती रोज रामायण" ।

यह भी कहा जाता है कि ----

"जिन हिंदू परिवारों में रामचरितमानस की चौपाई के स्वर नहीं होते उन घरों में राग, शोक, दुख ,दरिद्रता व क्लेश सैदेव  चारपाई बिछाए स्थाई रूप से निवास करते हैं" ।

अतःश्री रामचरितमानस का पाठ अत्यंत कल्याणकारी है।इसे हमे अपने दैनिक जीवन का हिस्सा बनाना  चाहिए।

निष्कर्ष

निष्कर्षत:यही कहा जा सकता है कि श्रीरामचरितमानस एक ऐसा महाकाव्य है जो प्रत्येक भारतीय के हृदय में बसा है ।इसके नियम, मूल्य, मान्यताएं, रीति रिवाज हमारी रक्त धारा के साथ मिलकर हमारे शरीर में अनवरत चलाएमान है, गतिमान है ,और जो रक्त धारा है, वह जीवनदायिनी शक्ति है, आधार है वह तो बहुमूल्य होगी ही।
श्री रामचरितमानस के बिना भारत की पहचान संभव नहीं हो सकती ।यह सर्वसाधारण भारतीय का अपना महाकाव्य है क्योंकि--

" सकल सुमंगल दायक, रघुनायक गुण गान, सादर सुनहिं ते तरही भव,सिंधु बिना जल जान"।

(सुंदरकांड, दोहा- 60)

अर्थात रघुनायक श्री राम जी का गुणगान अति मंगलकारी है जो नर इसे आदर के  साथ सुनते हैं, इस संसार सागर से पार उतर जाते हैं।

रामचरितमानस एक वृहद ग्रंथ है। इसको शब्द सीमा में बांधना असंभव कृत्य है क्योंकि स्वयं देवताओं ने भी जिसके बारे में नेति- नेति कहा हो,तो हम जैसे अल्प बुद्धि व्यक्ति इसका वर्णन करने में कैसे समर्थ हो सकते हैं। इसका कथानक, इसकी विशालता, इसकी विविधता को समझ पाना हमारे बस का काम नहीं है। फिर भी एक तुच्छ प्रयास है क्योंकी

"जाति पाती पूछे नहीं कोई,
हरि को भजे सो हरि का होई "।

अतः हमने भी भक्ति भावना को समाहित करते हुए श्री रामचरितमानस के ऊपर अपने विचार व्यक्त किए है क्योंकि यह प्राकृतिक है कि जहां श्री रामचरितमानस का नाम होगा वहां भक्ति अवश्य होगी।
अतः अंत में बस यही कहना चाहूंगी कि श्रीरामचरितमानस का जो स्थान भारतवर्ष में है या पूरे विश्व में है वो ऐसे ही आदरणीय बना रहे, और आगे भी यह ग्रंथ हमारे आने वाली पीढ़ियों के लिए भक्ति, संस्कार, चेतना, नैतिकता, मानवीय मूल्यों का  संरक्षण,  संवर्धन  करता रहे  इसी मंगल कामना के साथ,

                    "जय श्री राम"।

लेखिका
डॉ विदुषी शर्मा

संदर्भ ---

1  रामचरित मानस
2 मैथिलीशरण गुप्त :साकेत, मुझे फूल मत मारो।

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