नारी व समाज निर्माण

नारी तू नारायणी

नारी व समाज निर्माण

शोध सारांश---

निर्माण यानी "सृजन"। सृजन की शक्ति प्रकृति ने केवल नारी जाति को ही प्रदान की है। (हालांकि बीज तत्व की महिमा को नकारा नहीं जा सकता।) नारी वह है जो निर्माण करती है, सृष्टि का पोषण करती है ,संरक्षण करती है, पुष्पित-पल्लवित करती है ।नारी जाति के बिना पुरुष का, इस विश्व का अस्तित्व संभव नहीं है। नारी हर रूप में पूजनीय है ।नारी जाति की महिमा के  वैविध्य पर आगे विस्तार से चर्चा की गई है तथा समाज निर्माण में उसके योगदान पर भी प्रकाश डाला गया है।

परिचय---

हम 'क्या' हैं हम 'कौन' हैं? इस सवाल का जवाब केवल एक नारी ही दे सकती है क्योंकि हमारे अस्तित्व का निर्माण एक नारी के द्वारा ही संभव हो पाया है।

"  या देवी सर्वभूतेषु मातृ-रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥"

             (श्री दुर्गा सप्तशती)

नारी एक मां है, एक शक्ति है, विद्या है ,बुद्धि है, क्षमा है ,लज्जा है, पुष्टि है, भक्ति है, श्रद्धा है, तुष्टि है, मुक्ति है। यानि निर्माण(जन्म,अस्तित्व) से लेकर पूरा जीवन जीने के बाद मुक्ति को भी केवल नारी जाति के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है ।यहां हम बात केवल स्त्री जाति की ही नहीं कर रहे हैं। नारी जाति यानी हमारी मातृभूमि, हमारी धरती मां, आदिशक्ति देवी मां, जिनके विभिन्न 9 रूप हैं,नव दुर्गा है, जो अपने विभिन्न रूपों से समय-समय पर इस विश्व पर आई विपदाओं का नाश करती हैं तथा अपने आशीर्वाद के द्वारा हर रूप में इस सृष्टि का पालन ,पोषण करती हैं। वास्तव में पूरे जगत में सभी स्त्रियां उस जगत जननी मां का ही स्वरुप है और उनका अस्तित्व सर्वकालिक  Timeless है यानी वो किसी एक समय पर उपस्थित नहीं है। वह तो "समय" से भी परे हैं।

"प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति. चतुर्थकम्।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति.महागौरीति चाष्टमम्।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना:"।

(श्री दुर्गा सप्तशती,देवी कवच)

  जन्म और मोक्ष दोनों के लिए दोनों को संभव बनाने के लिए एक नारी ,एक शक्ति की परमावश्यकता है। जन्म के लिए मां की कोख है, तो पालन पोषण  के लिए धरती मां की गोद है और मुक्ति के लिए  (अस्थि विसर्जन) मोक्षदायिनी मां गंगा है। यानी जन्म के लिए एक माँ का होना तो परमावश्यक है ही  ।उसके बाद पूरा जीवन हम जिस अनाज पर, जिन फलों पर, जिन सांसों पर, अपना जीवन व्यतीत करते हैं वह धरती मां, प्रकृति इन सब की देन है। और समाज में, घर में रहते हुए हम विभिन्न प्रकार  रिश्तो में बंधे हुए भांति-भांति  के आनंद प्राप्त करते हैं।  यह आनंद  हमें  नारी जाति जो विभिन्न रूपों में प्रदान करती है उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। एक मां की ममता , प्यार ,दुलार,  लोरी , एक बहन का स्नेह, उसका हक,उसका लाड, उसकी भावनाएं  उसका प्रेम,  एक पत्नी का समर्पण,  त्याग  और जीवन भर साथ निभाने की कसम,  सुख दुख में साथ निभाने का,  हर परिस्थितियों में साए की तरह  साथ रहने का वचन, एक बेटी का  प्यार , उसका अपनापन, उसका अधिकार, उसका  अल्हड़पन, यह सब  ऐसे रिश्ते हैं जो हमारे जीवन को सार्थक बनाते हैं।  और इन सब से जुड़ी  किसी की भी भावनाओं को हम शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकते क्योंकि यह भावनाएं ऐसी हैं जो एक व्यक्ति को  इतना महान भी बना सकती हैं  कि वह अमर हो जाए।  कहा भी है कि

"हर कामयाब व्यक्ति के पीछे एक औरत का हाथ होता है"।

  तो एक कामयाब इंसान को बनाने में नारी अपना सब कुछ बलिदान कर देती है।  यह किसी भी रुप में हो सकती है।  इसीलिए उसकी महिमा का गुणगान  क्या किया जा सकता है । जीवन को संवारने में ,जीवन को बनाने में नारी की जो भूमिका है  वह अतुलनीय है ,अवर्णनीय है ।
यहां मैं स्वरचित कविता की कुछ पंक्तियां कहना चाहूंगी कि

"माँ है तो श्री है, आधार है क्योंकि,
प्रकृति, धरती एक माँ का ही तो प्रकार है ।
                     

                    
माँ है तो कृष्ण, है राम है, बलराम भी है क्योंकि,
माँ के बिना असम्भव इन्सान तो क्या भगवान भी है ।
              
माँ और माटी का सदियों पुराना नाता है, इन दोनों की हस्ती को चाहकर भी भला कौन मिटा पाता है,
एक जाननी है तो दूसरी मातृभूमि भारत माता है"।

हम सब खुशनसीब हैं और हमें इस बात का गर्व होना चाहिए कि हम भारत मां की संतान है । वह भारत माता जो पूरे विश्व को अपना परिवार मानती हैं और सभी व्यक्तियों  के कल्याण की बात सोचती हैं ।यह  हमारी पहचान है
"वसुधैव कुटुंबकम्" और

"सर्वे भवंतु सुखिनः"

जिसमें किसी भी प्रकार के वैर- द्वेष, सांप्रदायिकता, वैमनस्य इत्यादि की भावनाओं का  कोई स्थान नहीं है ।इसमें सभी के कल्याण की बात है और पूरी पृथ्वी को  एक परिवार के समान होने की बात की गई है। यह है हमारी भारत माता जो सभी को संरक्षण ,सभी को प्यार देती है एवं खुली बाहों से सब का स्वागत करती है।

   वास्तव में नारी तू नारायणी के सभी उपविषय ऐसे हैं कि जिन पर बात किए बिना कोई भी विषय अपने आप में पूर्ण हो ही नहीं सकता। जब हम समाज निर्माण की बात करते हैं तो साहित्य सृजन की बात भी सम्मिलित होगी क्योंकि 'साहित्य समाज का दर्पण है'। और जब समाज है तो   हमारा पर्यावरण भी होगा। उसमें निर्माण, संरक्षण आदि में नारियों की भूमिका भी सर्वोपरि है क्योंकि बच्चों में संस्कार मां के द्वारा ही डाले जाते हैं जो  कि  प्रकृति,पर्यावरण के  संरक्षण को आगे बढ़ाते हैं। और यह सब संस्कार बचपन में ही दिए जा सकते हैं क्योंकि जो बात निश्छल मन पर लिखी जाती है वह  अमिट बन जाती क्योंकि बच्चे कोरी स्लेट , कच्ची मिट्टी के  समान होते हैं। इन पर हम जो लिखना चाहे, वह लिख सकते हैं,जो आकार देना  चाहें हम दे सकते हैं ।इसलिए हमें अपने बच्चों को अच्छे संस्कार जैसे  प्रकृति प्रेम, जीव प्रेम, भाईचारा, मैत्री, शांति , सहजता, सरलता, मान्यताएं परंपराएं ,नैतिकता, धार्मिकता,  सामाजिकता आदि  इन सब के मायने बचपन में ही सिखा देनी चाहिए ताकि बच्चे बड़े होकर इस देश के सभ्य और जिम्मेदार नागरिक बन सके तभी तो समाज का निर्माण होगा एक स्वस्थ, सुंदर, गतिशील, उन्नतशील समाज ।और यह काम एक नारी, एक माँ के अलावा कौन कर सकता है कि---

"माँ है तो सबका बचपन अनूठा, निराला है, क्योंकि माँ ही तो हर बच्चे की प्रथम पाठशाला है"।


वेदों में नारी में नारी की स्थिति एवम नारी सम्मान तथा समाज निर्माण में सक्रिय ,सार्थक, भूमिका---

वैदिक काल में  नारी की स्थिति की बात किए बिना वर्तमान समाज निर्माण की बात करना बेमानी हो जायेगा।
वेद नारी को अत्यंत महत्वपूर्ण, गरिमामय, उच्च स्थान प्रदान करते हैं| वेदों में स्त्रियों की शिक्षा- दीक्षा, शील, गुण, कर्तव्य, अधिकार और सामाजिक भूमिका का जो सुन्दर वर्णन पाया जाता है, वैसा संसार के अन्य किसी धर्मग्रंथ में नहीं है| वेद उन्हें घर की सम्राज्ञी कहते हैं और देश की शासक, पृथ्वी की सम्राज्ञी तक बनने का अधिकार देते हैं|

वेदों में स्त्री यज्ञीय है अर्थात् यज्ञ समान पूजनीय| वेदों में नारी को ज्ञान देने वाली, सुख – समृद्धि लाने वाली, विशेष तेज वाली, देवी, विदुषी, सरस्वती, इन्द्राणी, उषा- जो सबको जगाती है इत्यादि अनेक आदर सूचक नाम दिए गए हैं|

वेदों में स्त्रियों पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है – उसे सदा विजयिनी कहा गया है और उन के हर काम में सहयोग और प्रोत्साहन की बात कही गई है| वैदिक काल में नारी अध्यन- अध्यापन से लेकर रणक्षेत्र में भी जाती थी| जैसे कैकयी महाराज दशरथ के साथ युद्ध में गई थी| कन्या को अपना पति स्वयं चुनने का अधिकार देकर वेद पुरुष से एक कदम आगे ही रखते हैं|

अनेक ऋषिकाएं वेद मंत्रों की द्रष्टा हैं – अपाला, घोषा, सरस्वती, सर्पराज्ञी, सूर्या, सावित्री, अदिति- दाक्षायनी, लोपामुद्रा, विश्ववारा, आत्रेयी आदि |
आइए, वेदों में नारी के स्वरुप की झलक इन मंत्रों में देखें –

अथर्ववेद ११.५.१८

ब्रह्मचर्य सूक्त के इस मंत्र में कन्याओं के लिए भी ब्रह्मचर्य और विद्या ग्रहण करने के बाद ही विवाह करने के लिए कहा गया है |  यह सूक्त लड़कों के समान ही कन्याओं की शिक्षा को भी विशेष महत्त्व देता है |

कन्याएं ब्रह्मचर्य के सेवन से पूर्ण विदुषी और युवती होकर ही विवाह करें |

अथर्ववेद १४.१.६

माता- पिता अपनी कन्या को पति के घर जाते समय बुद्धीमत्ता और विद्याबल का उपहार दें | वे उसे ज्ञान का दहेज़ दें |

जब कन्याएं बाहरी उपकरणों को छोड़ कर, भीतरी विद्या बल से चैतन्य स्वभाव और पदार्थों को दिव्य दृष्टि से देखने वाली और आकाश और भूमि से सुवर्ण आदि प्राप्त करने – कराने वाली हो तब सुयोग्य पति से विवाह करे |

इस प्रकार वेदों में नारी का स्थान क्या है यह हम जान पाए।

नारी हर रूप में एक शक्ति है ।वह पुरुष को जन्म देती है, उसका पालन करती है (एक मां के रूप में) आजीवन उसका साथ देती है(एक पत्नी के रुपमें) जिम्मेदार बनाती है, सोचने का नजरिया बदलती है,(एक बेटी के रूप में) और जीवन को आलंबन देती है (पुत्र वधू के रूप में)।
यानि जीवन के हर पड़ाव में ,हर रिश्ते में वह सशक्त है।

जब हम समाज निर्माण की बात कर रहे हैं, भारतवर्ष की बात कर रहे हैं, स्त्रियों के शौर्य की बात कर रहे हैं तो  भारतीय इतिहास में स्वतंत्रता आंदोलन में नारियों की भूमिका की बात को कैसे छोड़ा जा सकता है ।इस आंदोलन में रानी लक्ष्मीबाई ,सावित्रीबाई फुले, अरुणा आसफ अली, दुर्गाबाई, सुचेता कृपलानी ,विजयलक्ष्मी पंडित इन सबके नाम स्वर्ण अक्षरों से अंकित है। इन सब नारियों ने न केवल स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया अपितु समाज के उत्थान के लिए भी उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया। समाज हम सब लोगों से ही मिलकर बना है। और जिसमें हमें ऐसे  कार्य चाहिए कि अधिक से अधिक जन कल्याण हो सके चाहे वह किसी भी क्षेत्र में हो शिक्षा के, स्वास्थ्य के, खेलों के, सांस्कृतिक आदि। यानी समाज को हर दृष्टि से सक्षम और सफल बनाना है तो उसमें उसके सभी क्षेत्रों में  बराबर उन्नति करनी होगी ।लोगों को आम जनता को ऊपर उठाने की बात करनी होगी । यदि हम लोगों में  मानवीय गुणों, सांस्कृतिक चेतना मातृभूमि के प्रति प्रेम, समर्पण आदि के भाव जागृत कर पाते हैं तो यह एक उत्कृष्ट कृत्य बन जाता है क्योंकि एक एक व्यक्ति से ही समाज का निर्माण होता है। यदि प्रत्येक व्यक्ति और भावी पीढ़ी यदि सही सोच वाली है, अच्छे विचारों वाली है, सकारात्मक अभिप्रेरणा से प्रेरित है तो वह समाज प्रगति के पथ पर सदैव अग्रसर बना रहता है, और इन सब में एक नारी की भूमिका सर्वोपरि है क्योंकि एक परिवार को बनाने में नारी का स्थान सर्वोच्च है और परिवार समाज की प्राथमिक इकाई है

  जब इतने महान कार्य नारी द्वारा किए जा सकते हैं तो नारी उत्थान की संकल्पना अनिवार्य तत्व बन जाती है और वर्तमान परिदृश्य में इनका मूल्यांकन इन  आधारों पर किया जा सकता है कि इतने महान कार्य करने वाली नारी राष्ट्र निर्माण का कार्य बखूबी कर सकती है एवं राष्ट्र निर्माण में सक्रिय सार्थक भूमिका अवश्यंभावी रूप से निभा सकती है और निभाती ही चली आ रही है। यहां हम कमला नेहरु, श्रीमती इंदिरा गांधी, शीला दीक्षित, सुषमा स्वराज , स्मृति इरानी , मीरा कुमार , वसुंधरा राजे ,सुमित्रा महाजन, निर्मला सीतारमण आदि इन सबका नाम ले सकते हैं।

निष्कर्ष---

निष्कर्षत: यही कहा जा सकता है कि  समाज निर्माण में नारी की भूमिका सर्वोपरि है ।वह निर्माण, पालन और मुक्ति तीनों की हेतु भूता सनातनी देवी के समान है ।एक तरह से वह 'त्रिदेव'  यानि ब्रह्मा विष्णु और महेश तीनों का कार्य अकेले ही करती है क्योंकि जिस प्रकार ब्रह्माजी सृष्टि के 'रचयिता' माने गए हैं (नारी सृजनकर्ता है) विष्णु जी पालनहार (नारी और धरती माँ ही हम सबका भरण,पोषण करती है) और शिवजी विनाशक या संहारक ।[(यहां हम विनाश के स्थान पर मुक्ति का प्रयोग कर रहे हैं  माँ गंगा मुक्ती प्रदान करती है) क्योंकि मां कभी भी विनाशक नहीं हो सकती। एक पुत्र कुपुत्र हो सकता है परंतु एक माता कभी कुमाता नहीं हो सकती।]

"कुपुत्रो जायते क्वचिदपि कुमाता न भवति|"
                     (श्री दुर्गा सप्तशती)

  इस प्रकार जीवन का कोई भी क्षेत्र हो वहां नारी जाति ने अपना लोहा मनवाया ही है। वर्तमान युग में भी ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां स्त्रियों की सक्रिय, सार्थक भागीदारी ना हो और वह सफल ना हुई हो। इतिहास में भी किसी भी क्षेत्र में नारी की सफलता पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता। और वास्तव में ही 'नारी नारायणी' है ।
अंत में सिर्फ यही कहना चाहती हूं कि-

" माना कि पुरुष बलशाली है, पर जीतती हमेशा नारी है,
सांवरिया के छप्पन भोग पर सिर्फ एक तुलसी भारी है"।

लेखिका

डॉ विदुषी शर्मा

सिंघानिया विश्वविद्यालय झुंझुनू, राजस्थान।

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