वैश्विक परिप्रेक्ष्य में हिंदी विस्तार और चुनौतियां

वैश्विक परिप्रेक्ष्य में हिंदी:
विस्तार और चुनौतियां

शोध सार ----

हिंदी केवल एक भाषा ही नहीं है। हिंदी है प्रत्येक हिंदुस्तानी का गर्व , हिंदी है प्रत्येक हिंदुस्तानी की पहचान, हिंदी है हिंदुस्तान का ताज। हिंदी भाषा का इतना परिचय यद्यपि काफी है ,परंतु हिंदी के ज्ञान ,उसकी अभिव्यक्ति, उसका इतिहास, उसकी सरलता , उसकी सहजता, उसकी परिपक्वता, उसकी मिठास और गहराई और भी न जाने क्या - क्या जिन्हें शब्दों में वर्णित करना आसान कृत्य नहीं है। इन सब के बारे में हम विस्तार से जानने का प्रयत्न करेंगे क्योंकि "पूर्णता" किसी भी विषय पर प्राप्त करना अपने आप में एक लक्ष्य है । हम केवल अपने सार्थक प्रयास करेंगे।

वास्तव में भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति, भारतीय साहित्य जितना अधिक प्रचारित-प्रसारित है, वृहद है ,अनूठा है ,विविध है उतना किसी और देश का संभव हो ही नहीं सकता। हमारे भारतीय साहित्य में जितने वेद, पुराण, श्रुतियां, स्मृतियां, महाकाव्य आदि की उपलब्धता है वह किसी अन्य सभ्यता के पास हो, ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती ।अभी हमने सिर्फ साहित्य की बात कीइसलिए की है क्योंकि साहित्य की वैश्विक स्तर पर उपलब्धता प्राप्त करने का एक महान हेतु बनी है "हिंदी"। क्योंकि इसी साहित्य को आम पाठक वृंद की पहुंच एवं समझ तक सरलता से  बनाए रखने के लिए हिंदी भाषा का अत्यधिक प्रयोग किया गया है। वैसे हिंदी साहित्य में भी ना तो ग्रंथों की कमी है और ना ही विविधता की। प्रत्येक विषय पर( जैसे राजनीति, अर्थ ,काम आदि पर) प्रत्येक रस पर (जैसे वीर श्रृंगार, वात्सल्य आदि पर) प्रत्येक विधा पर ( जैसे दोहा,  सौरठा,कविता, कहानी, नाटक, एकांकी आदि) पर प्रत्येक भाव पक्ष पर या भावना पर( जैसे वीरता, भक्ति, प्रेम, आदि) पर प्रचुर मात्रा में साहित्य, पूर्ण  प्रामाणिकता के साथ उपलब्ध है। हिंदी साहित्य के इतिहास का वर्गीकरण ही इन्हीं भाव पक्षो की प्रधानता को लेकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा किया गया है जैसे वीरगाथाकाल ,रीतिकाल ,भक्तिकाल आदि। इस प्रकार हम देखते हैं कि हिंदी भाषा में ज्ञान है ,प्रेम है ,करुणा है ,मित्रता है ,भावाभिव्यक्ति की चरम सीमा है, काव्य सौष्ठव है, छंद अलंकार के साथ सौंदर्यात्मकता है, और इन सब के साथ - साथ है हिंदी भाषा का जो सबसे महत्वपूर्ण गुण, और वह है इसकी सरलता और आसानी से उपलब्धता । क्योंकि भाषा संबंधी यह गुण तो अन्य भाषाओं में भी हैं परंतु और वे भाषाएँ भी सरल कही जा सकती है। परंतु हिंदी जितनी नहीं, क्योंकि भारत में प्रत्येक राज्य में हिंदी बोलने वालों की एक विशेष जनसंख्या उपलब्ध है। और  उत्तर भारत जैसे हरियाणा, पंजाब ,उत्तर प्रदेश ,हिमाचल प्रदेश को लगभग पूर्णतया ही हिंदी भाषी क्षेत्र है। इसलिए हिंदी की महत्ता में और इजाफा हो जाता है।
इसकी अखंडता और प्रगाढ़ हो जाती है जब हिंदी की सरलता के साथ - साथ हिंदी की आसान पहुंच, उपलब्धता भी जुड़ जाती है   जो इसके वैश्विक रूप को आलंबन देती है ।

कीवर्ड्स  -------
   
अभिव्यक्ति, परिपक्वता, एकीकरण, सम्मेलन, उपलब्धि, अखंड, प्रचारित-प्रसारित ,स्मृतियां, श्रुतियां, महाकाव्य,  राष्ट्रीय, एकीकरण,  परिश्रम, प्रमाणिकता, वैश्विक।

परिचय

हिंदी हमारी अपनी भाषा है, प्रत्येक हिंदुस्तानी की भाषा है ,और प्रत्येक हिंदुस्तानी का फर्ज है कि वह हिंदी को अपने हृदय से अपनाए, उस का प्रचार-प्रसार करने  का यथासंभव प्रयास करे । हिंदी के गौरव की रक्षा करे ,तथा विश्व में उसका एक स्थान निश्चित करने में अपना सक्रिय योगदान दे। 

विस्तृत वर्णन

हिंदी का साहित्य इतना अधिक विस्तृत है कि शायद एक जन्म में भी इसका अध्ययन संभव नहीं है ।पूर्व में हमने हिंदी भाषा के विविध रूपों का वर्णन किया है ।अब हम इसके गौरवपूर्ण इतिहास तथा हिंदी भाषा के आविर्भाव के बारे में जानने का प्रयत्न करते हैं।

हिंदी भाषा का प्राकट्य एवं क्रमिक विकास

  संपूर्ण भारत में मिले शिलालेखों एवं ताम्रपत्रों के माध्यम से यह प्रमाणिक ऐतिहासिक तथ्य है कि 8 वीं शताब्दी ईसा पूर्व तक संस्कृत आर्यों की   सामान्य बोलचाल की भाषा होने के साथ ही साहित्य की परिनिष्ठित भाषा थी। कालांतर में (दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व) यह भाषा देश में "पाली" भाषा तथा विदेश में "अरबी" एवं "फारसी" में परिवर्तित हो गई ।भगवान बुद्ध ने अपने उपदेश "पाली" भाषा में ही दिए थे। तीसरी शताब्दी ईसा  पूर्व तक आते-आते पाली भाषा से एक  अपभ्रंश भाषा "प्राकृत" का जन्म हुआ । हिंदी साहित्य का प्रारंभ इसी  "प्राकृत" भाषा से हुआ है ।
प्राकृत भाषा सिंधु नदी के उस पार फ़ारस में "हिंदवी" नाम से जानी जाने लगी  । वस्तुतः  "हिंदवी"  शब्द की उत्पत्ति सिंधी भाषा  से हुई है ,क्योंकि फारसी लोग "स" को  'है" उच्चारित करते थे । यही "हिंदवी" शब्द बाद में हिंदी हो गया ।
आमिर खुसरो ने इसी भाषा में साहित्य की रचना की है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि आधुनिक भारत की समस्त भाषाओं का जन्म "प्राकृत" अथवा "हिंदवी" से ही हुआ है। यही कारण है कि हिंदी भाषा में सभी दक्षिण एशियाई भाषाओं के शब्द चाहे वे विदेशी, अरबी ,फारसी ,हो या मूल संस्कृत तत्सम शब्द हों ,बहुतायत में मिलते हैं ।

हिंदी भाषा का प्रचार - प्रसार

"सब देसन से लै करहू, निज भाषा माही  प्रचार"।
अर्थात सब देशों में रहते हुए ,भ्रमण करते हुए भी अपनी भाषा के द्वारा ही स्वयं का,  अपनी भाषा का ही प्रचार - प्रसार करना चाहिए। इसका सबसे उत्तम उदाहरण हमारे इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है ।जब विवेकानंद जी 11 सितंबर 1893 में शिकागो में   "विश्व धर्म सम्मेलन"  में भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे तो उन्होंने अपनी ही भाषा में अपना व्यक्तव्य प्रस्तुत किया था  । जिस के शुरूआती शब्द  थे  ------- "अमेरिका में रहने वाले मेरे प्यारे भाई - बहनों"---------।

उन्होंने विदेशी धरती पर जाकर भी अपनी हिंदी भाषा को, अपने स्वाभिमान को ,अपने आत्म गौरव को, अपनी हिंदुत्व को ,अपनी पहचान "हिंदी"को नहीं छोड़ा ।
यह हम सब के लिए एक सबक है, हम सबके लिए अनुकरणीय है।
प्रस्तुत समय में लोग अंग्रेजी भाषा को बोलना ,उसका प्रचार -प्रसार करना गौरव की बात समझते हैं। परंतु वे  यह भूल जाते हैं कि  "English is just a Language , not a measure of anyone's Intelligence"  यानी अंग्रेजी सिर्फ एक भाषा है, यह किसी के ज्ञान ,उसकी विद्वत्ता का परिचायक या पैमाना  नही है।
  यही हिंदी भाषा अखंड भारत में कैलाश मानसरोवर से लेकर  सिंहल द्वीप  तक प्रचलित  थी  जो बाद में अपभ्रंश होकर  नवीन भाषाओं के रुप में विकसित हो गई ।इस प्रकार हम यह कह  सकते हैं कि संस्कृत की प्रथम मौलिक उत्तराधिकारी भाषा हिंदी  ही है जो प्रमाणिक रुप से देश की  समस्त आधुनिक भाषाओं की जननी है।
इसी कारण हम इसे भारत की  "सर्व व्यापी" भाषा का दर्जा देते हैं ,और एक अन्य तथ्य एवं गौरवशाली बात यह भी है हिंदी विश्व की तीसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है ।भारत और अन्य देशों में 60 करोड़ से अधिक लोग हिंदी भाषा बोलते पढ़ते और लिखते हैं। फ़िजी, मॉरीशस ,गयाना ,सूरीनाम और नेपाल की अधिकतर जनसंख्या हिंदी भाषा का ही प्रयोग करती है। हिंदी राष्ट्रभाषा, राजभाषा ,संपर्क भाषा ,जनभाषा के विभिन्न सोपानों को पार कर "विश्व भाषा" बनने की ओर निरंतर अग्रसर है।

हिंदी हम सब का गौरव

जब विश्व के अन्य देश अपनी मातृभाषा को अपनाना ,अपनी पहचान बताना गौरव की बात मानते हैं तो हम हिंदुस्तानी  हिंदी को अपनाने से क्यों कतराते हैं? राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सभी कार्य यथासंभव हिंदी में ही होने चाहिए । हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार  विद्यार्थी जीवन से ही प्रारंभ हो जाना चाहिए ताकि हिंदी का धारा प्रवाह प्रसार हो सके। इस विषय पर जगदीश त्यागी का यह दोहा अनुकरणीय सिद्ध हो सकता है ---------

"गूंज उठे भारत की धरती, हिंदी के जय गानों से,
पूजित, पोषित, परिवर्द्धित हो बालक, वृद्ध, जवानों से"।

राजभाषा के रूप में हिंदी का संवैधानिक महत्त्व तथा अन्य आधुनिक विषयों के साथ उसका संबंध और समन्वय

भारतीय संविधान सभा ने विशद विचार मंथन के बाद 14 सितंबर 1949 को हिंदी को भारत संघ की राजभाषा घोषित किया ।भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ और तभी से देवनागरी लिपि में लिखित हिंदी विधिवत भारत संघ की राजभाषा है। हिंदी को राजभाषा तो घोषित कर दिया गया परंतु केंद्र सरकार के कार्यों में हिंदी को अंग्रेजी का स्थान देने के लिए गंभीरता से  प्रयास, केंद्र सरकार द्वारा प्रारंभ किए गए। जिसके परिणाम स्वरुप राजभाषा अधिनियम 1963 को पास किया गया। इस अधिनियम के तहत प्रशासन चलाने के लिए विभिन्न प्रकार के कार्य करने का प्रस्ताव किया गया जिनमें विभिन्न आधुनिक विषय जैसे तकनीकी, पत्रकारिता आदि भी सम्मिलित किए गए।  इस अधिनियम के आधार पर जिन बिंदुओं पर कार्य किया कार्य हुआ वह हैं --------
1  शब्दावली का निर्माण ।
2  प्रशासनिक साहित्य का अनुवाद।
3  हिंदी शिक्षण योजना।
4  यांत्रिक साधनों की व्यवस्था ।
5  कंप्यूटर ।
6  इलेक्ट्रॉनिक टेलीप्रिंटर।
7  हिंदी की मुद्रण क्षमता में वृद्धि।
8  राजभाषा के संबंध में कानूनी व्यवस्थाएं।

इसी क्रम में आगे राजभाषा अधिनियम 1976 का भी प्रावधान किया गया। राजभाषा नीति के कार्यान्वयन की जिम्मेदारी भारत सरकार के सभी मंत्रालयों  / विभागों पर है। यह विभाग समन्वय के लिए वार्षिक कार्यक्रमों को जारी करने के अलावा कई प्रकार की समितियों का गठन करके यह कार्य कर रहे हैं । जिनका विवरण इस प्रकार है ---------
1  केंद्रीय हिंदी समिति ।
2  हिंदी सलाहकार समितियां ।
3  राजभाषा कार्यान्वयन समितियां ।

यह सभी अपने - अपने कार्य क्षेत्रों में हिंदी के लिए, हिंदी के उत्थान के लिए आवश्यक कार्य कर रही हैं ।और समय-समय पर विभिन्न स्तरो पर हिंदी की कार्यशालाओं  का आयोजन भी कराया जाता है। तात्पर्य है कि हिंदी में काम करने का, हिंदी को विश्व स्तर की भाषा बनाने का कार्य प्रगति पर है ।यहां यह बात स्पष्ट कर देना मैं अपना कर्तव्य समझती हूं कि साहित्यिक महत्व ,विचारों की महत्ता ,आदि इन  सबका ओचित्य तभी है, जब इन सब को संवैधानिक आधार मिले। कोई भी विचार, कानून तब बनता है जब उसे सरकारी अनुमति प्राप्त होती है ।और वह तभी प्रभावशाली भी हो पाता है। इसलिए केवल वैचारिकता ही उपयोगी नहीं है। उसके लिए हमारे देश का सर्वश्रेष्ठ कानून "संविधान" में इसका क्या प्रावधान किया गया है, यह जानना भी अत्यंत आवश्यक है।

निष्कर्ष

इसलिए निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि हमारा शोध जो एक विचार ,एक सोच, एक भाव से आरंभ हुआ था ,हमने उसे विस्तार प्रदान करते हुए प्रमाणिक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि प्रदान की। तथा इसके साथ - साथ उसे आधुनिकता के विषयों के साथ समायोजित करते हुए संवैधानिकता का आलंबन प्रदान किया जो उसके अस्तित्व, उसकी प्रमाणिकता, उसकी विश्वसनीयता के लिए  अत्यंत आवश्यक है ।अंत में यही कहना पर्याप्त है कि

"तू हिंदी है हिंदी को पढ़ता चला जा,
और हिंदी के पथ पर बढ़ता चला जा।

ग्रन्थानुक्रमणिका

1  हिंदी साहित्य और सामासिक संस्कृति--- डॉक्टर  कर्ण राजशेखर गिरी राव।

2  हिंदी साहित्य में सामासिक संस्कृति की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति---
प्रोफेसर केसरी कुमार ।

3 भारतीय व्यक्तित्व के संश्लेष की भाषा ---
डॉक्टर रघुवंश ।

4 देश की सामसिक संस्कृति की अभिव्यक्ति मे हिंदी का योगदान ---
डॉक्टर राज किशोर पांडे ।

5 हिंदी साहित्य में संस्कृति के तत्व---
डॉक्टर शिव नंदन प्रसाद।

6 हिंदी का विकासशील स्वरूप---
   डॉक्टर आनंद प्रकाश दीक्षित ।

7 मानक भाषा की संकल्पना और हिंदी---
   डॉक्टर कृष्ण कुमार गोस्वामी ।

8  सांस्कृतिक भाषा के रूप में हिंदी का विकास ---
डॉक्टर त्रिलोचन पांडे ।

9  प्रशासनिक हिंदी का विकास ---
डॉक्टर नारायण दत्त पालीवाल

10 जन - जन की विकासशील भाषा "हिंदी"---
भागवत झा आज़ाद।

11 भारत की भाषिक एकता ,परंपरा और हिंदी  ---
प्रोफेसर माणिक गोविंद ।

12 हिंदी की संवैधानिक स्थिति और उसका विकासशील स्वरूप ---
प्रोफेसर विजेंद्र स्नातक।

13 राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में देवनागरी---
श्री जीवन नायक ।

14  राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में हिंदी ---
प्रोफेसर सिद्धेश्वर प्रसाद ।

15 भारत की राजभाषा नीति ---
श्री कृष्ण कुमार श्रीवास्तव ।

16 भारत की राजभाषा नीति और उसका कार्यान्वयन ---
श्री देवेंद्र चरण ।

17  हिंदी का अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य ---
श्री बच्चन प्रसाद सिंह।

18  हिंदी साहित्य का इतिहास।
19  देवनागरी हिंदी।
  20 विश्व स्तर पर हिन्दी।

लेखिका
डॉ विदुषी शर्मा

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