"श्री मद्भागवत गीता" एक कालातीत ग्रंथ
"धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय"।
जिस ग्रंथ का आरंभ ही "धर्म" से होता है जो केवल एक शब्द नहीं है अपितु एक भावना है, एक स्तंभ है, एक आलंबन है ,एक धुरी है, ज्ञान है, परंपरा है, विश्वास है, आस्था है और भी ना जाने क्या-क्या, जिसे शब्दों में व्यक्त करना असंभव काम है ।जिसके एक शब्द के बारे में हम कुछ भी कहने में असमर्थ हैं तो आप खुद ही अनुमान लगाइए कि इस पूर्ण ग्रंथ को कुछ शब्दों में समेट पाना कैसे संभव हो सकता है? और जो साक्षात स्वयं श्रीकृष्ण की वाणी है उसे हम कलयुगी जीव कैसे अपने अल्प ज्ञान के द्वारा दूसरों के सामने व्यक्त कर सकते हैं? फिर भी प्रयास करना मानव का कर्तव्य है। इसीलिए मैंने भी केवल एक प्रयास किया है कि "श्रीमद्भागवत गीता" के बारे में कुछ कह सकूं।
श्रीमद्भगवद्गीता एक कालातीत ग्रंथ है ।इसके बारे में अपने विचार प्रस्तुत करने से पहले ही मैं क्षमा प्रार्थी हूं और यह मात्र प्रयास ही है क्योंकि पूर्णता केवल ईश्वर में ही प्राप्य है। श्रीमद्भगवद्गीता मात्र एक पुस्तक ही नहीं है यह कई विषयों की समग्रता लिए हुए हैं जिनमें कर्मयोग, ज्ञानयोग, सांख्य योग ,वेदांत योग, वैराग्य ,दर्शनशास्त्र, भक्ति, चेतना, एकेश्वरवाद आदि प्रमुख है ।
पृष्टभूमि ---
श्रीमद्भगवद्गीता की पृष्ठभूमि महाभारत का युद्ध है ।जिस प्रकार एक सामान्य मनुष्य अपने जीवन की समस्याओं में उलझकर कई बार किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है और यह अनुभव करता है कि जो षड्यंत्र कर रहे हैं वह भी तो अपने ही हैं, जिनसे जीतना है वह भी अपने हैं, जिनसे लड़ना है, वह भी अपने हैं, जिनको परास्त करना है वह भी अपने हैं, तो ऐसी स्थिति में क्या उपाय किया जाए कि मन शांत हो जाए ।ऐसी स्थिति जहां कर्तव्य को निभाना भी कठिन हो और उससे विमुख होना भी कठिन हो, कर्म करना भी कठिन हो और अकर्मण्य बने रहना भी दुश्वार हो तो ऐसी स्थिति में मनुष्य को क्या करना चाहिए? इन सभी प्रश्नों का उत्तर अर्जुन के माध्यम से श्री कृष्ण जी ने संपूर्ण जगत को दिया है। भारत वर्ष के ऋषियों ने गहन विचार विमर्श के बाद इस ज्ञान को आत्मसात किया। उसे उन्होंने वेदों का नाम दिया। इसी वेदों का अंतिम भाग उपनिषद कहलाता है। मानव जीवन की विशेषता ईश्वर द्वारा प्रदत्त बौद्धिक क्षमता है। केवल मानव को बुद्धि प्राप्त है क्योंकि अन्य जातियों में बुद्धि तो प्राप्य है किंतु अन्य प्राणियों में बुद्धि के प्रयोग का स्तर केवल अपना भरण पोषण करने, स्वयं की तथा अपनी संतान की सुरक्षा करने तक सीमित है ।मानव को प्राप्त बुद्धि उच्च कोटि की कही गई है क्योंकि इसके द्वारा वह साहित्य, कला, ज्ञान, शिक्षा के क्षेत्र में असाधारण सृजन, अन्वेषण शोध कर सकता कर सकता है ,और कर चुका है, और आगे भी करता रहेगा ।और इन उपनिषदों में ज्ञान, मानव की उच्चतम अवस्था में तो है ही अपितु बुद्धि की सीमाओं से भी परे है जहाँ मानव ईश्वर की कृपा से उस अदृश्य संसार के बारे में सोचने लगता है जहाँ उसे मृत्यु के बाद जाना है ।यह स्थिति तब प्रकट होती है जब हम किसी की मृत्यु को देखते हैं ।तब क्षण भर के लिए ही सही हमारे विचार ,हमारा मन , हमारा अंतरण बिल्कुल शुद्ध हो जाता है क्योंकि हमें अपने अंतिम सत्य के दर्शन यानी मृत्यु दिखाई देती है। परंतु कुछ अंतराल के बाद फिर वही सांसारिक चक्र प्रारम्भ हो जाते हैं ।
इस संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? जस्बा यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न किया था तो उसने जवाब दिया था कि मनुष्य स्वयं दूसरों को कंधे पर उठाकर ले जाता है फिर भी यह सोचता है कि मेरे साथ यह सब नहीं होगा। यही सबसे बड़ा आश्चर्य है ।
"अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम् ।
शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम्।।१६।।
(इह अहनि अहनि भूतानि यम-आलयम् गच्छन्ति, शेषाः स्थावरम् इच्छन्ति, अतः परम् आश्चर्यम् किम् ।)
" यहां इस लोक से जीवधारी प्रतिदिन यमलोक को प्रस्थान करते हैं, यानी एक-एक कर सभी की मृत्यु देखी जाती है । फिर भी जो यहां बचे रह जाते हैं वे सदा के लिए यहीं टिके रहने की आशा करते हैं । इससे बड़ा आश्चर्य भला क्या हो सकता है ? तात्पर्य यह है कि जिसका भी जन्म हुआ है उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है और उस मृत्यु के साक्षात्कार के लिए सभी को प्रस्तुत रहना चाहिए । किंतु हर व्यक्ति इस प्रकार जीवन-व्यापार में खोया रहता है जैसे कि उसे मृत्यु अपना ग्रास नहीं बनाएगी" ।
महाभारत का वन पर्व अध्याय 313
इस प्रकार की पृष्ठभूमि जीवन की समस्याओं से साक्षात्कार है ।जीवन के अंतिम सत्य से सामना है, और मृत्यु पश्चात जीवात्मा की यात्रा और कर्म फल की प्राप्ति, स्वर्ग - नर्क और पुनर्जन्म व्यवस्था तथा प्रबंधन के बारे में विस्तार से बताया गया है।
वास्तव में गीता एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें एक ही श्लोक के कई अर्थ हो सकते हैं जैसे कि हम अपनी बुद्धि,विवेक, शिक्षा अनुभव आदि के आधार पर एक ही शब्द के अनेक अर्थ निकाल सकते हैं। यह हमारी बुद्धि का स्तर है कि हम इसे कितना समझ पाते हैं कितना ग्रहण कर पाते हैं और कितना याद कर पाते हैं और अपने जीवन में कितना अनुभव कर पाते हैं और इन सब पर कितना आचरण करते हैं ,जो सबसे महत्वपूर्ण है।
महाभारत के अनुसार कुरुक्षेत्र युद्ध में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निमित्त मानकर गीता के माध्यम से पूरी सृष्टि को ही कालातीत ज्ञान प्रदान किया है। महाभारत के भीष्म पर्व के अंतर्गत दिया गया एक उपनिषद है ।
वास्तव में विषय वासनाओं से, विकृतियों से वियोग होगा तभी तो परमात्मा से "योग" होगा। वियोग से योग और योग से वियोग एक दूसरे से संबंधित हैं तथा जब एक का आगमन होता है तो दूसरे का प्रस्थान होता है। अप्राप्त चीज को प्राप्त करना ही "योग" है और प्राप्त चीज की सुरक्षा करना आवश्यक है।
हम 'धर्म' को तो मानते हैं परंतु 'धर्म' की नहीं मानते ।
किसी ने उत्सुकतावश प्रश्न किया -
5 छिद्रों वाले घड़े को कैसे भरेंगे ?
गुरु ने मुस्कान के साथ उत्तर दिया - "पानी में ही डूबा रहने दो ;भरा ही रहेगा" !
इसी तरह हमारी 5 इन्द्रियाँ परमात्मा में ही डूबी रहेंगी तो संसार क्या बिगाड़ लेगा ?मन में जन्म -जन्मान्तर के जो संस्कार चले आ रहे हैं,जो मैल इकट्ठी हो रही है,उसे धोने का उपाय केवल "हरि" नाम है। हम चाहे लाखों तरीके अपनाएँ, लेकिन हम अपने मन को वश में नहीं कर पाऐंगे। मन केवल शब्द के साथ जुड़ने पर ही काबू में आता है।
गीता के बारे में कुछ और अधिक जानकारी निम्न है---
किसको सुनाई: श्रीकृष्ण ने अर्जुन को।
कब सुनाई: आज से लगभग 1000 साल पहले।
किस दिन सुनाई: रविवार के दिन।
कौन सी तिथि को: एकादशी।
कहाँ सुनाई: कुरुक्षेत्र की रणभूमि में।
कितनी देर में सुनाई: लगभग 45 मिनट।
क्यों सुनाई: कर्त्तव्य से भटके अर्जुन को कर्त्तव्य पथ पर लाने के लिए एवं आने वाली पीढ़ी को धर्म ज्ञान सिखाने के लिए।
अर्जुन को गीता पर पूर्ण विश्वास कब आया:श्रीकृष्ण के विराट स्वरुप के दर्शन के बाद।
अर्जुन के आलावा और किसने श्रीकृष्ण के विराट रूप के दर्शन किये: संजय ने।
अर्जुन के आलावा इसे और किसने सुना: धृतराष्ट्र एवं संजय ने।
अर्जुन से पहले इसका ज्ञान किसे मिला था: सूर्यदेव को।
गीता की गिनती किन धर्मग्रंथों में की जाती है:उपनिषदों में।
गीता किस महाग्रंथ का भाग है: महाभारत के शांति पर्व का।
गीता का दूसरा नाम: गीतोपनिषद।
गीता का सार क्या है: परमात्मा की शरण लेना।
कुल कितने श्लोक हैं: 700
कुल कितने अध्याय है: 18
विषाद योग: 43
श्लोकसांख्य योग: 72
श्लोककर्म योग: 43
श्लोकज्ञान कर्म संन्यास योग: 42
श्लोक कर्म संन्यास योग: 29
श्लोक ध्यान योग अथवा आत्मसंयम योग: 47 श्लोकज्ञान विज्ञान योग: 30
श्लोकअक्षर ब्रम्ह योग: 28
श्लोकराजविद्या राजगुह्य योग: 34 श्लोकविभूति विस्तार योग: 42
श्लोकविश्वरूप दर्शन योग: 55
श्लोकभक्ति योग: 20
श्लोकक्षेत्र क्षेत्रजन विभाग योग: 35 श्लोकगुणत्रय विभाग योग: 27
श्लोकपुरुषोत्तम योग: 20
श्लोकदैवासुर सम्पद विभाग योग: 24 श्लोकश्रध्दात्रय विभाग योग: 28
श्लोकमोक्ष संन्यास योग: 78 श्लोक ।
गीता में किसने कितने श्लोक कहे हैं:
श्रीकृष्ण ने: 574
अर्जुन ने: 85
धृतराष्ट्र ने: 1
संजय ने: 40
यहां पर कवि 'केशव दास जी' की बहुत सुंदर रचना का वर्णन करना चाहूंगी जो उन्होंने शाश्वत ग्रंथ गीता पर लिखी है ---
"सुगम सरल तर रूचिर विचार द्वारा,
जीवन कली को बन पवन खिलाती गीता।
ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य ,शूद्र चारों वर्ण मित्र,
सबको "स्व कर्म" हितकर है बताती गीता ।
मीठे उपदेश से मिटा के मोह अर्जुन का,
दुर्जन को तीर मार - मार के सताती गीता।
मानस गगन पर छाई घटा माया की जो,
काट - काट ज्ञानवाताघात से हटाती गीता।
सुख सरसाती अमृत बरसाती जाती,
पीती हिंदू जाति और फिर हर्षाती गीता ।
जगत तड़पता, ना होता ज्ञान रोता,
यदि 'केशव' के मुख्य से निकल के ना आती गीता ।
"गीता" कुछ यथार्थ तथ्य----
महाभारत काल से ही लगभग सारे विद्वानों में है आम मान्यता है कि मानवीय तौर पर ऐसी पुस्तक लिखना असंभव है ।यह विश्व के उन चुनिंदा ग्रंथों में से है जो ईश्वरीय माने जाते हैं। गीता की सबसे खास बात यह है कि इसका अर्थ समझना अत्यंत सरल है परंतु इसका आशय समझना एक दुष्कर कार्य है। जिस प्रकार हम सब जानते हैं कि ईश्वर कण - कण में विद्यमान है और वह उपस्थित है भी ।क्या हर जगह जो छोटे - छोटे पौधे ,घास और छोटे -छोटे जीव उस ईश्वर की कृती नहीं है? क्या उन पर ईश्वर की कृपा नहीं है ?क्या उनमें जीवन नहीं है ?क्या वह सांस नहीं ले रहे हैं ?क्या वह नित्यक्रिया है जैसे भोजन, सृजन नहीं कर रहे हैं ?क्या वह सृष्टि में अपना योगदान नहीं दे रहे हैं ?यह सब बातें हम जानते हैं, परंतु फिर भी हम मानने को तैयार नहीं है ।वास्तव में
It is so simple to understand,but it is so difficult to be SIMPLE
सबसे बड़ी विडंबना यह है कि हम जिस अदृश्य शक्ति द्वारा पल्लवित-पोषित हो रहे हैं,अपने दैनिक जीवन के सब कार्य कर पा रहे हैं, इस जीवन को, इन सांसों को, इस देह को प्राप्त कर पाए हैं, जिसमें न जाने कितनी ही क्रियाएं निरंतर हो रही हैं, कितने ही अंग- प्रत्यंग अपना कार्य अनवरत कर रहे हैं, करते चले आ रहे हैं, इसका अंदाजा हमें तभी होता है जब हमारे शरीर का कोई भी अंग खराब हो जाता है जैसे लीवर, किडनी ,आंखें,दाँत इत्यादि। फिर हमारे मुंह से अनायास ही निकल जाता है कि
'भगवान की दी हुई चीज का कोई मुकाबला नहीं है' ।
और हम यह नहीं सोचते कि ईश्वर ने पूरी सृष्टि के जीवों को यह सब मुफ्त में दिया है जिसका कोई भी मूल्य हमने नहीं चुकाया है । और क्या हम इस बारे में सोच सकते हैं कि एक ही त्वचा जिसका रंग थोड़ा सा अलग है और मुंह नाक और आंखें इन सब के द्वारा उसी ईश्वर ने कितने ही चेहरे बना डाले और इन सब की अपनी पहचान है, और इससे अधिक अचरज की एक और बात है कि हम सबकी हाथों की लकीरें,Figure Print हम सबके भाग्य भी अलग हैं।
There are not Two mens are alike
इस बारे में हम लोग नहीं सोच पाते। क्या यह ईश्वर का प्रमाण नहीं है ।यह सब बातें उन लोगों के लिए हैं जो उस सर्वशक्तिमान की सत्ता में संदेह करते हैं । हम सोच पा रहे हैं, महसूस कर पा रहे हैं और सबसे बड़ी यह बात कि उसे ईश्वर के बारे में हम टिप्पणी कर पा रहे हैं कि उस सर्वशक्तिमान ईश्वर की उपस्थिति है ही नहीं, इस से बड़े दुर्भाग्य और नैराश्य की बात क्या हो सकती है ।वह ईश्वर जो इस ब्रह्मांड के रचयिता है ,और जिस पृथ्वी पर हम रह रहे हैं 84 लाख योनियां जिनमें जलचर ,नभचर ,थलचर जिनकी संख्या वेद पुराणों में प्राप्त है, ऐसी अनगिनत पृथ्वी या ब्रह्मांड में भी विचर रही हैं।उस सर्व शक्तिमान ईश्वर की उपस्थिति को मान नहीं रहे हैं, पहचान नहीं पा रहे हैं, आभास नहीं कर पा रहे हैं। इन सब बातों को बताने के लिए गीता की रचना हुई है कि मनुष्य क्या है? वह क्या काम करता है ?जीवन क्या है ?मृत्यु क्या है ?आत्मा क्या है? मृत्यु के बाद आत्मा कहां जाता है?जीवात्मा क्या काम करता है? पुनर्जन्म क्या है?किसी के भी मन में उठने वाले इन सब प्रश्नो के उत्तर श्री कृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से पूरी सृष्टि के कल्याण हेतु प्रदान किये हैं।
"नैंन छिद्रन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत" ॥
(द्वितीय अध्याय, श्लोक 23)
इस श्लोक का अर्थ है: आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है। (यहां भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मा के अजर-अमर और शाश्वत होने की बात की है।)
"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही" ॥
(द्वितीय अध्याय श्लोक 22)
भावार्थ : जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है॥
यह ग्रन्थ एक बहुत ही गहरा अर्थ और अपनी विशिष्टता लिए हुए है। गीता का पठन-पाठन हमें रोज करना चाहिए क्योंकि---
"हमें निज धर्म पर चलना सिखाती रोज गीता,
सदा शुभ आचरण करना सिखाती रोज गीता।
जिन्हें संसार सागर से उतरकर पार जाना है, उन्हें सुख से किनारे पर लगाती रोज गीता।
कहीं त्याग, प्रेम, "दर्शन" का दर्शन कराती रोज गीता ,
यह संसार दुखों से भरा है, सच में धरा पर मोक्ष की राह बताती गीता।
इस 'धरा' पर सब धरा रह जाएगा,
यह पाठ जन - जन को रोज पढ़ाती गीता।
फिर भी हम अज्ञानी मूढ़ समझ ना पाते
निष्काम कर्म का महत्व बताती रोज गीता।
यह ग्रंथ अनुपम है, शाश्वत है ,साक्षात प्रभु कृष्ण की वाणी है गीता,
यह मानव जन्म व्यर्थ है, यदि पूर्ण जीवन में एक बार भी नहीं पढ़ पाए जो गीता"।
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्"॥
(चतुर्थ अध्याय, श्लोक 7)
इस श्लोक का अर्थ है: हे भारत (अर्जुन), जब-जब धर्म ग्लानि यानी उसका लोप होता है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं (श्रीकृष्ण) धर्म के अभ्युत्थान के लिए स्वयम् की रचना करता हूं अर्थात अवतार लेता हूं।
"परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे"॥
(चतुर्थ अध्याय, श्लोक 8)
इस श्लोक का अर्थ है: सज्जन पुरुषों के कल्याण के लिए और दुष्कर्मियों के विनाश के लिए... और धर्म की स्थापना के लिए मैं (श्रीकृष्ण) युगों-युगों से प्रत्येक युग में जन्म लेता आया हूं।
गीता ना केवल एक धार्मिक ग्रंथ है अपितु यह एक अद्भुत समग्र, अर्थ पूर्ण ग्रंथ है ।इसमें कई तत्वों का विवेचन है जिनके बारे में हम पूर्व में बता चुके हैं। इनके साथ - साथ क्योंकि यह सत्य सनातन धर्म की पहचान है और साक्षात् श्री कृष्ण की वाणी है इसलिए बिना "धर्म" के और बिना "भक्ति" के गीता की बात नहीं की जा सकती ।इसीलिए धर्म के साथ भक्ति का योग भी है और हमने इन दोनों का आश्रय लेकर ही अपने विचार इसके बारे में प्रस्तुत किए हैं क्योंकि बिना भक्ति के यह संभव हो ही नहीं सकता।
वास्तव में गीता के पूर्ण अर्थ को समझ पाना, और इस को व्यक्त कर पाना एक असंभव कृत्य है ।हमने केवल प्रयास किया है क्योंकि 'पूर्णता' केवल ईश्वर में विद्यमान है।
ग्रंथानुक्रमणिका--
1 गीताभाष्य --- आदि शंकराचार्य
2 गीता भाष्य --- रामानुज
3 गूढ़ार्थ दीपिका टीका --- मधुसूदन सरस्वती 4 सुबोधिनी टीका ----श्रीधर स्वामी
5 ज्ञानेश्वरी --- संत ज्ञानेश्वर
6 गीता रहस्य ---- बाल गंगाधर तिलक 7 7 7 अनासक्ति योग ----महात्मा गांधी
8 ईश्वरार्जुन संवाद --- परमहंस योगानंद
9 गीता प्रवचन --- विनोबा भावे
10 गीता तत्व विवेचनी --- जयदयाल गोयंदका
11 भगवत गीता का सार --- स्वामी क्रियानंद 12 गीता साधक संजीवनी -- स्वामी रामसुखदास ।
(भगवत गीता पर उपलब्ध भाषा में श्री जयदयाल गोयंदका की "तत्व विवेचनी" सर्वाधिक लोकप्रिय है तथा जनसुलभ भी। इसका प्रकाशन गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा किया जाता है ।आज तक इसकी 10 करोड़ प्रतियां बिक चुकी है। यह हमारे लिए सौभाग्य की बात है।)
लेखिका
डॉ विदुषी शर्मा
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