उपेक्षित नारियां
उपेक्षित नारियां
आज 6 दिन पुराना अखबार देखा तो उसमें सुनीता कृष्णन जी के बारे में पढ़ा कि वो किस तरह अपने बर्तन, जेवर बेच कर भी सेक्स वर्करों को बचा रही हैं। (संडे 10 दिसंबर 2017 नवभारतटाइम्स)
उनकी जिंदगी में एक ऐसा मोड़ आया जब 15 वर्ष की आयु में उन्हें भी इस प्रकार का उत्पीड़न झेलना पड़ा। इस तरह की घटनाएं ना केवल शरीर , बल्की आत्मा को भी घायल कर देती हैं ,बड़े-बडो को तोड़ देती है ।परंतु सुनीता जी इस हादसे के बाद और मजबूती के साथ खड़ी हो गई तथा और अधिक अडिगता से अपने फैसले पर कायम हो गई ।
सबसे पहले तो मैं उनका हाथ जोड़कर अभिनंदन करती हूं।
उनके इरादे मजबूत होने का एक मनोवैज्ञानिक या नैतिक कारण यह हो सकता है कि उन्होंने अपने स्वयं के शरीर और आत्मा के साथ इस त्रासदी को झेला है। उनके मन मस्तिष्क में शायद यह बात रही होगी कि एक बार में ही मेरा तन-मन घायल हो गया तो सोचो उन अबोध बच्चियों का क्या हाल होता होगा जिन्हें जबरन इस पेशे में धकेला जाता है ।रोज-रोज उन्हें कितने ही 'ग्राहकों' को संतुष्ट करना पड़ता है ,कितनी यातनाएं झेलनी पड़ती है, भूख सहनी पड़ती है, और भी न जाने क्या- क्या? जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता।
एक औरत होने के नाते मैं इस दर्द को, इस त्रासदी को, इस अन्याय को, इस घुटन को, इस उत्पीड़न को अच्छी प्रकार से समझ सकती हूं। वास्तव में यह ऐसे मुद्दे हैं जिन पर ज्यादातर लोग बात करना ही नहीं चाहते। परंतु आजकल हालात बदल रहे हैं। फिल्मों के माध्यम से इन 'उपेक्षित नारियों' के जीवन को कुछ हद तक आम जनता तक पहुंचाने की कोशिश की जाती रही है, जिसमें उमराव जान, बेगम जान, प्रहार, सलाम बॉम्बे, चांदनी बार, देवदास आदि फिल्मों के नाम लिए जा सकते हैं ।
यह सभी फिल्में इन उपेक्षित नारियों के जीवन के अलग-अलग दृश्य दर्शाती हैं। कहीं तवायफ का पूरा जीवन है ,कहीं उसके बच्चे की जिंदगी का सवाल है, कहीं बचपन से बिछड़ी हुई लड़की को अपना घर वापस मिलता है तो उसके परिवार के द्वारा उसे नकार दिया जाता है, कहीं वह मां बनना चाहती है, तो कहीं उसी की संतान को ढाल बनाकर उससे यह काम करवाया जाता है, तो कहीं अपने बच्ची को इस दलदल से दूर रखने की जद्दोजहद की कहानियां है।
कुल मिलाकर 'जीवन से फिल्में प्रेरित होती है' और 'फिल्मों से जीवन' ।
परंतु वास्तविकता तो यह है कि इस तरह की जिंदगी वास्तव में सदियों से चली आ रही है ।जिस प्रकार आज 'पिंक' में "No" के अधिकार का प्रयोग सेक्स वर्कर के लिए भी किया गया है, वह काबिले तारीफ है ।परंतु यह स्थिति बहुत कम लड़कियों को नसीब हो पाती है। कई जगह तो उन्हें किसी भी प्रकार के अधिकार नहीं दिए जाते ।यह स्थिति वास्तव में ही भयावह है।
हम सभ्य समाज अब जरा इस सबसे आगे दूसरे पहलू पर विचार करते हैं। वास्तव में ये 'उपेक्षित स्त्रियां' समाज को काफी हद तक प्रदूषित होने से बचाती हैं ।बलात्कार की घटनाओं को थोड़ा कम करने में अहम भूमिका निभाती है। परंतु आजकल मनोरंजन के साधन के रूप में इंटरनेट, मोबाईल,आधुनिकिकरण,पश्चिमी सभ्यता और कलयुग का प्रभाव भी इतना अधिक हो गया है कि फिर भी आए दिन कई प्रकार के अनेकों घटनाएं होती ही जा रही हैं ।
हमें इन 'उपेक्षित नारियों' के लिए कुछ करना चाहिए ।इनके जीवन का तो अब जो होना था सो हो गया, परंतु हमें कुछ ऐसा सोचना चाहिए कि जब इनके पास यह काम भी नहीं होगा तो इनका जीवन कैसे बीतेगा ? इसलिए उनके आने वाली स्थिति के बारे में अभी से ही कुछ इंतजाम करने होंगे, क्योंकि समाज इन्हें स्वीकार नहीं करता यह कटु सत्य है, और जो सबसे बड़ी चिंता है वह है इनके बच्चों की। इन बच्चों का इन सब में कोई दोष नहीं है। हमें कोशिश करनी चाहिए कि इन बच्चों की माँए चाहे वह किसी हादसे के शिकार की वजह से यहां आई है या किसी मजबूरी की वजह से, यह त्रासदी झेलते हुए जीवन जी रही हैं ,वो सब माएं यह कभी नहीं चाहेंगी कि उनकी बेटी इस दलदल में कभी भी फंसे।
हर माँ की तरह ये 'उपेक्षित नारियाँ' भी यही चाहेंगी की उनकी बेटियों को भी समाज में इज्जत के साथ जीने का मौका मिले, पढ़ने का मौका मिले, आगे बढ़ने का, कुछ करने का उतना ही समान अवसर मिले, जितना किसी भी आम बच्चे को मिलता है। यह उनका अधिकार है ।इस दिशा में मिल कर हमें कुछ करना होगा, ताकि हम समाज में इन बच्चों को पुनः स्थापित कर सकें।
ये 'उपेक्षित नारियाँ' भी समाज का हिस्सा है। यह प्रताड़ित हैं, शोषित हैं, घायल हैं, मजबूर हैं।इन्हें आवश्यकता है संरक्षण की, प्यार की, देखभाल की,और इन्हें आश्वासन के साथ भरोसा भी चाहिए कि उनके बच्चों का भविष्य सुरक्षित होगा, और सुरक्षित किया भी जाएगा ।इस दिशा में हमें बड़े स्तर पर शीघ्र ही कुछ ठोस कदम उठाने होंगे।
इन उपेक्षित नारियों को भी समानता के साथ जीने का हक है, उनके बच्चों को भी संविधान द्वारा प्रदत्त सभी मौलिक अधिकार प्राप्त हैं। इसलिए हम सबको इस दिशा में यथासंभव, कुछ ना कुछ अवश्य करना चाहिए।
हमारे दिल से की गई सहानुभूति भरी एक दुआ भी काम आएगी।
इन उपेक्षित नारियों का जीवन काश सुधर जाए ।इनके बुढ़ापे का कुछ इंतजाम हो जाए।इनके बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो जाए, ताकि ये सब भी प्यार से, सम्मान से, अधिकार से जीवन यापन कर सकें। (भले ही अपने अलग समाज में, क्योंकि आम समाज इन्हें अपनाता नहीं है, तो इनकी दुनिया अलग ही बन जाती है)।
परंतु हमें यह सार्थक प्रयास करना चाहिए कि इनके मासूम बच्चों की दुनिया अलग ना बने, वह हमारे ही समाज का हिस्सा बन पाएं । है तो यह बहुत बड़ी आशा ।
परंतु कहते हैं ना कि "जीवन ही आशा है "
और "आशा ही जीवन है"।
ईश्वर से हाथ जोड़कर यही विनती करती हूं कि किसी भी नारी जाति को इस प्रकार उपेक्षित ना हो ना पड़े । वो जीवन में जो करना चाहे उसे मौका मिले, सहारा मिले , आलंबन मिले, कामयाबी मिले शोहरत मिले और वो सब मिले जिसके वो काबिल है।
इन्हीं शुभकामनाओं के साथ ।
लेखिका
डॉ विदुषी शर्मा
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